यूसुफ अंसारी

वर्ष 1982 में बीआर चोपड़ा ने एक फिल्म बनाई थी। नाम था ‘तलाक, तलाक, तलाक’। फिल्म रिलीज से पहले मुस्लिम धार्मिक संगठनों ने फिल्म और उसके नाम पर ऐतराज किया। मामला बांबे हाईकोर्ट पहुंचा। मुस्लिम धार्मिक रहनुमाओं ने कहा कि फिल्म का नाम बड़े पैमाने पर मुस्लिम परिवारों में ‘तलाक’ का कारण बन सकता है। तर्क दिया गया कि अगर कोई मुस्लिम व्यक्ति फिल्म देख कर घर पहुंचे और उसकी बीवी उससे पूछे कि कहां गए थे? वह आदमी कहे कि फिल्म देखने। बीवी फिर पूछे कि कौन-सी? पति कहे ‘तलाक, तलाक, तलाक’ तो दोनों के बीच ‘तलाक’ हो जाएगा। मुस्लिम धार्मिक रहनुमाओं ने मुस्लिम कानून यानी शरीयत का हवाला देते हुए अदालत को बताया कि आदमी की नीयत हो या न हो अगर उसके मुंह से बीवी के सामने ‘तलाक’ शब्द निकल गया को उसका सच में ‘तलाक’ हो जाएगा। अदालत में मुस्लिम धार्मिक गुरु जीत गए। बीआर चोपड़ा को फिल्म का नाम बदलना पड़ा। बाद में यही फिल्म ‘निकाह’ नाम से रिलीज हुई। इसमें बहुत ही बेबाकी से दिखाया गया है कि एक साथ ‘तीन तलाक’ से कैसे एक परिवार तबाह होता है।
शरीयत ने मुस्लिम मर्दों के लिए बीवी से छुटकारा पाना इतना आसान कर दिया है कि आप और हम सोच भी नहीं सकते। अगर कोई अपनी बीवी से छुटकारा पाना चाहता है तो बस उसे तीन बार ‘तलाक’ बोलना है। अगर कोई गलती से एक बार ‘तलाक’ बोल दे तो उसका ‘तलाक’ हो जाएगा। फिर उसे बीवी के साथ तीन महीने के अंदर राजीनामा करना पड़ेगा। अगर कोई गलती से तीन बार ‘तलाक’ बोल दे तो सीधे बीवी से ही हाथ धो बैठेगा।
देश भर में एक साथ ‘तीन तलाक’ पर साल भर से चल रही बहस के बीच इस फिल्म का जिक्र करना बेहद प्रासंगिक है। हाल ही में एक साथ ‘तीन तलाक’ दिए जाने के ऐसे-ऐसे मामले सामने आए हैं जिनके बारे में सोच कर हंसी भी आती है और अफसोस भी होता है। भारत में लागू मुस्लिम कानून यानी शरीयत के मुताबिक नशे में, गुस्से में, हंसी-मजाक में ‘तलाक’ बोलने भर से ‘तलाक’ हो जाता है। अगर लिखकर ‘तलाक’ दिया गया है तो सिर्फ लिखने भर से ही ‘तलाक’ हो जाता है। इसी तरह फोन पर या एसएमएस से भी ‘तलाक’ हो जाता है। औरत के पास तलाकनामा पहुंचना या उसका पढ़ना जरूरी नहीं है। हर सूरत में ‘तलाक’ हो जाएगा। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा तैयार किए गए मुस्लिम कानून में तो यहां लिखा है कि अगर शौहर बीवी को अंगुली दिखा कर कहे कि मैंने तुझे इतना ‘तलाक’ दिया तो उसे उतनी बार ‘तलाक’ माना जाएगा। अगर हम शरीयत को कुरान की कसौटी पर परखें तो इसमें कई खामियां नजर आती हैं। कुरान में हुक्म है कि अगर किसी शौहर और बीवी के बीच झगड़ा इस हद तक बढ़ जाए कि घर टूटने का अंदेशा पैदा हो जाए तो दोनों की तरफ से एक-एक न्यायप्रिय व्यक्ति को तैनात करके सुलह कराने की कोशिश की जाए। सुलह की कोशिश नाकाम होने पर ही ‘तलाक’ की नौबत आनी चाहिए। कुरान शौहर को यह हक नहीं देता कि वह कभी भी और कहीं से भी बगैर किसी ठोस वजह के अपनी बीवी को ‘तलाक’ दे दे। ऐसा करना कुरान का खुला उल्लंघन है। कुरान और हदीस में एक साथ तीन ‘तलाक’ को जायज ठहराने का कोई ठोस आधार नहीं है, लेकिन फिर भी कुछ मुस्लिम धर्मगुरु इसे जारी रखने पर अड़े हुए हैं। एक साथ ‘तीन तलाक’ की परंपरा किसी भी सूरत में जायज नहीं कही जा सकती। रसूल-ए-पाक हजरत मोहम्मद ने अपनी किसी बीवी को ‘तलाक’ नहीं दिया। जब हमें रसूल की जिंदगी में एक साथ ‘तीन तलाक’ की कोई मिसाल नहीं मिलती तो हमें इस मामले में हदीसों पर जाने की जरूरत ही नहीं है। हमें कुरान के आदेश पर ही अमल करना चाहिए। हालांकि हदीसों से भी साफ है कि रसूल-ए-पाक हजरत मोहम्मद के जमाने में पहले खलीफा हजरत अबू बक्र सिद्दीकी के दौर में और दूसरे खलीफा हजरत उमर के दौर-ए-खिलाफत के पहले दो साल तक एक साथ ‘तीन तलाक’ बोलने को एक ही ‘तलाक’ माना जाता था। अर्थात एक ‘तलाक’ के बाद तीन महीने के अंदर आपसी सहमति से शौहर और बीवी साथ रह सकते हैं। तीन महीने के बाद भी उनके पास फिर से निकाह करने का विकल्प है। कुरान के बताए इतने आसान तरीके को शरीयत के नाम पर बने मुस्लिम कानूनों ने इतना पेचीदा बना दिया है कि आम मुसलमान इनके जाल में उलझ कर रह गया है।
मजहबी रहनुमाओं की एक साथ ‘तीन तलाक’ को तीन ही मानने की जिद के चलते आए दिन ‘तलाक’ की छुरी से हर रोज न जाने कितने परिवार टूट रहे हैं। कई मामलों में मासूम महिलाओं को ‘हलाला’ की लानत से भी गुजरना पड़ता है। एक साथ ‘तीन तलाक’ देने वालों को सिर्फ जाहिल करार देकर ही मजहबी रहनुमा अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकते। पढ़े-लिखे आम मुसलमानों को भी चाहिए कि वे शरीयत के नाम पर थोपे जा रहे मुस्लिम कानूनों को पढ़ें और उन्हें खुद कुरान की कसौटी पर परखें। अगर वे खरे उतरते हैं तो उन्हें मानें और खरे नहीं उतरते हैं तो उनके खिलाफ खुल कर आवाज उठाएं।
[ लेखक राजनीतिक-सामाजिक मामलों के विश्लेषक हैं ]