जीतेंद्रानंद सरस्वती

फरक्का बांध के कारण बिहार की तरफ आने वाले मलबे से गंगा में बढ़ती गाद और उत्तर बिहार में बाढ़ एवं दक्षिण बिहार में सूखे की समस्या को लेकर एक सेमिनार हाल में दिल्ली में हुआ। इसका आयोजन बिहार सरकार के जल संसाधन मंत्रालय द्वारा किया गया। इस कार्यक्रम का विषय बिहार में गंगा जनित समस्याओं से जुड़ा था। सेमिनार में ऐसे स्वनामधन्य जल पुरुषों का जमावड़ा था जो एनजीओ संस्कृति को पल्लवित-पुष्पित करते हैं। उनके द्वारा निष्कर्ष स्वरूप यह कहकर सम्मेलन को समाप्त किया गया कि नीतीश जी भारत के प्रधानमंत्री बनने के योग्य उम्मीदवार हैं। इससे यह सवाल उठा कि यह कार्यक्रम बिहार में बाढ़ एवं सूखे पर आयोजित था अथवा जिन एनजीओ की रोजी-रोटी मोदी सरकार में बंद हो गई है उनके द्वारा नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री का योग्य उम्मीदवार बताने के लिए? ध्यान रहे कि 1980 के दशक में गंगा मुक्ति का एक आंदोलन सफदर इमाम कादरी, रामशरण और अनिल प्रकाश सरीखे समाजवादियों ने शुरू किया था। इसका निष्कर्ष गंगा में मछली मारने की स्वतंत्रता को लेकर समाप्त हुआ। कहीं मौजूदा समाजवादी भी इसी दिशा में तो नहीं जा रहे हैं? उत्तर प्रदेश में चुनावी पराजय के बाद समाजवादी पार्टी को अचानक गंगा की याद आ गई है और उसके नेता रेवती रमण सिंह की ओर से काशी से गंगा की अविरलता एवं निर्मलता को लेकर आंदोलन शुरू करने की बात की गई है। यह वही राजनीतिक दल है जो सत्ता में रहते समय कानपुर से टेनरियां हटाने को लेकर अनिच्छा जाहिर करता रहा और एसटीपी निर्माण के मामले में भी हीलाहवाली करता रहा।
यह अजीब है कि सत्ता से हटते ही नेता गंगा के बहाने राजनीति चमकाने की जुगत कर रहे हैं। उक्त सेमिनार में मनमोहन सरकार के समय पर्यावरण मंत्री रहे जयराम रमेश ने बड़ी साफगोई से यह स्वीकार किया कि बिहार में गाद और बांध की समस्याओं पर कभी विचार ही नहीं किया जा सका। ऐसा नहीं है कि गंगा आंदोलन उतार-चढ़ाव के दौर से नहीं गुजरा, परंतु हर समय सत्ता और विपक्ष ने अपने-अपने अनुसार गंगा के हित में अपनी भूमिका सुनिश्चित की। उत्तराखंड के अंदर 535 छोटे-बड़े बांधों को संप्रग सरकार ने स्वीकृति दी। इसके बाद हरीश रावत सरकार पिछले तीन वर्ष तक केंद्र सरकार से इसे लेकर उलझी रही कि उत्तराखंड के बांध रुकने नहीं चाहिए। 2010 में तत्कालीन वित्तमंत्री एवं वर्तमान में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने साढ़े छह सौ करोड़ का नुकसान उठाकर लोहारी, नागपाला, पाला-मनेरी और मनेरी-भाली-2 परियोजना को रद किया था और जयराम रमेश को भेजकर इको सेंसेटिव जोन उत्तरकाशी पर एक सर्वे कराने का आदेश दिया था। वह आदेश कहां चला गया, इस पर किसी को कुछ भी पता नहीं। आखिर कांग्रेस आज अविरल गंगा और इको सेंसेटिव जोन के मुद्दे पर आंदोलन की मुद्रा में कैसे खड़ी हो सकती है?
2011 में संप्रग सरकार के विरोध में तीन प्रकार के आंदोलन करीब-करीब एक साथ प्रारंभ हुए थे। अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, रामदेव का कालेधन के खिलाफ आंदोलन और प्रोफेसर जीडी अग्रवाल के नेतृत्व में अविरल गंगा के लिए उत्तराखंड के अंदर बन रहे बांधों को रोकने का आंदोलन। इन तीनों आंदोलनों अर्थात अन्ना हजारे, रामदेव और प्रोफेसर जीडी अग्रवाल के साथ ऐसे लोग जुडे़ जिनके इरादे नेक नहीं थे। इनका इरादा यह था कि आंदोलन तो चले, लेकिन हाथ से बाहर न जाए। आम जनता ने इस छल को समझा और उसने संप्रग सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया। इसी के साथ भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी का उदय ‘मुझे मां गंगा ने बुलाया है..’ के साथ हुआ। संघ परिवार के समवैचारिक संगठनों के साथ काम करने के कारण प्रधानमंत्री ने उमा भारती को जल संसाधन एवं गंगा पुुनरुद्धार मंत्रालय का काम देकर अपनी यह मंशा स्पष्ट कर दी कि गंगा के सवाल पर कोई समझौता नहीं होगा। इसके बावजूद स्थितियां जस की तस हैं। नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा यानी एनएमसीजी के अधिकारियों को यही नहीं पता कि किस नगर में कितने नाले गंगा में गिरते हैं? वे इससे भी अनजान हैं कि कितने एमएलडी सीवर किस नगर में उत्सर्जित होते हैं और उसे नापने का सही पैमाना क्या है? इस सबके बावजूद वातानुकूलित कमरों में बैठकर आंकड़ों के जरिये गंगा को साफ करने के दावे किए जा रहे हैं।
7 अक्टूबर 2016 को केंद्रीय कैबिनेट ने एनएमसीजी को अथॉरिटी में बदल दिया और एक हजार करोड़ रुपये तक स्वयं खर्च करने का अधिकार भी दे दिया। यह बुनियादी परिवर्तन तो था, परंतु मंत्रालय के अधिकारी-कर्मचारियों में किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं दिखा। गंगोत्री से गंगा सागर तक जिस एसटीपी प्रोजेक्ट की बात की जा रही है वह टेक्नोलॉजी के अभाव का शिकार है। तीन वर्षों के अंदर यह मंत्रालय एक भी सीवर नाले को बंद नहीं करा पाया है। इस रवैये से गंगा निर्मलीकरण की मंशा पर गंभीर प्रश्न खड़े होते हैं। जब सपा सरकार ने उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट के आदेश के विपरीत जाकर टेनरियों को बंद नहीं करने का हलफनामा दिया था तब एनएमसीजी उन्हें बंद करने की बात कर रहा था। अब जब योगी सरकार ने कहा कि गंगा में एक बूंद सीवर का पानी नहीं जाएगा और टेनरियों को स्थानांतरित किया जाएगा तो एनएमसीजी यह शपथ पत्र लेकर एनजीटी पहुंच गया कि टेनरियां स्थानांतरित न की जाएं। आखिर एनएमसीजी गंगा के हितों का रखवाला है या प्रदूषण पैदा करने वाले कल-कारखानों का? यह विभाग अपने स्वयं के बुने जाल में बुरी तरह उलझकर रह गया है। वह टेनरियों को हटाने की जगह अन्य कामों में उलझा है। आगे के दो वर्षों में अविरल और निर्मल गंगा के सपने को हम कैसे साकार करेंगे? क्या इसका कोई रोडमैप है? 2014 में 2016 तक गंगा के साफ होने की बात होती थी। 2016 में 2018 तक और 2017 में 2022 तक की बात होने लगी है। अविरल गंगा के लिए तो सात वर्षों का समय मांगा जा रहा है। जिस मसले पर एक क्षण में निर्णय लेकर आगे बढ़ा जा सकता है उसके लिए सात वर्षों का समय समझ से परे है। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए अगर गंगा मुक्ति के लिए किसी नए आंदोलन का उद्भव हो जाए तो अचरज नहीं।
[ लेखक गंगा महासभा के राष्ट्रीय महामंत्री हैं ]