नई दिल्ली [ बलबीर पुंज ]। महाराष्ट्र जैसा प्रगतिशील राज्य हाल में 21वीं सदी से सीधे 18वीं शताब्दी में पहुंचता दिखा। प्रायोजित जातीय हिंसा के फलस्वरूप देश की आर्थिक राजधानी मुंबई सहित प्रदेश के कई शहर धधक उठे। कहा जा रहा है कि ‘बाहरी लोगों ने प्रदेश की जनता को भड़काकर माहौल बिगाड़ा।’ आखिर ये बाहरी लोग कौन थे? इस सवाल का जवाब चाहे जो हो, यह स्पष्ट है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपने वामपंथी साथी जिग्नेश मेवाणी का उपयोग ठीक उसी प्रकार कर रहे हैं जिस तरह पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पंजाब में अकालियों का राजनीतिक प्रभाव कम करने हेतु जरनैल सिंह भिंडरावाले का किया था। यहां तक कि तत्कालीन कांग्रेस महामंत्री राजीव गांधी ने भिंडरावाले को संत कहकर संबोधित किया था। भिंडरावाले और कांग्रेस की जुगलबंदी से क्या परिणाम निकले, वह इतिहास की काली सूची में दर्ज है।

‘दलित-मुस्लिम भाई-भाई’

जिग्नेश मेवाणी अपने वक्तव्यों में अक्सर दलित-मुस्लिम एकता की बात करते हैं। इसी तरह के गठजोड़ का आह्वान स्वतंत्रता से पूर्व मुस्लिम लीग ने देश के विभाजन के लिए किया था। इस गठजोड़ में बंगाल के दलित नेता जोगेंद्रनाथ मंडल भी शामिल हुए थे जो पाकिस्तानी संविधान सभा के कार्यकारी अध्यक्ष और बाद में लियाकत सरकार में मंत्री बने। पूर्वी पाकिस्तान के हबीबगढ़ में अनुसूचित जाति के लोगों, विशेषकर महिलाओं पर बर्बर अत्याचार के बाद मंडल ‘दलित-मुस्लिम भाई-भाई’ नारे का सच जान गए। पाकिस्तान में गैर-मुस्लिमों को कट्टरपंथियों के वीभत्स उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा और मंडल भी पाकिस्तान से अपमानित होकर पुन: भारत लौट आए।

पाकिस्तान और बांग्लादेश में दलितों और पिछड़ों की स्थिति नारकीय
आज देश में अनुसूचित जाति-जनजाति समुदाय की जनसंख्या 30 करोड़ से अधिक है। कालांतर में हुए सामाजिक सुधार के बाद दलितों और पिछड़ों को समान मौलिक अधिकार सहित आरक्षण प्राप्त है, वहीं पाकिस्तान और बांग्लादेश में उनकी स्थिति नारकीय है। कट्टर मुस्लिम, जिनका इन दोनों देशों में बोलबाला है-उनके लिए दलित भी गैर-मुस्लिम हैं और इस्लाम की मूल अवधारणा के अनुरूप ‘काफिर’ भी। अंग्रेजों ने जिस साम्राज्यवादी नीति के साथ भारत में मुस्लिम अलगाववाद को भड़काया और ईसाई मिशनरियों एवं चर्च द्वारा सामाजिक भेदभाव के शिकार लोगों का मतांतरण कर उन्हे शेष समाज के विरुद्ध खड़ा किया उसी का अनुसरण स्वतंत्र भारत में कुछ तत्व कर रहे हैैं। इसमें वामपंथी और छद्म सेक्युलरवाद के झंडाबरदार शामिल हैं। ऐसे लोगों को दलित कल्याण की कोई चिंता नहीं। वे उनका उपयोग केवल अपने घोषित विभाजनकारी उद्देश्यों के लिए कर रहे है।

‘दलित बनाम शेष हिंदू समाज’ की झूठी अवधारणा

महाराष्ट्र जातीय हिंसा को लेकर इन्हीं लोगों ने सार्वजनिक विमर्श में ‘दलित बनाम शेष हिंदू समाज’ की झूठी अवधारणा को पुन: जगह दी जिसे विकृत तथ्यों और गलत इतिहास की नींव पर प्रस्तुत किया जा रहा है। भीमा कोरेगांव में एक जनवरी 1818 को हुए युद्ध में अंग्रेजों की सैन्य टुकड़ी में महारों (दलित) के अतिरिक्त अन्य भारतीय समुदाय के लोग भी शामिल थे। पेशवाओं की पैदल सेना में भी कथित निम्न जाति के लोग थे। इस लड़ाई में दोनों पक्षों से कई सैनिकों की मौत हुई। अब जो युद्ध भारत और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच लड़ा गया था, वह दलित बनाम मराठा कैसे हो गया?

 जनरल डायर के आदेश पर निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोरखा सैनिकों ने गोलियों की बौछार की

यदि ‘दलित बनाम मराठा’ रुग्ण सिद्धांत को सही माना जाए तो वर्ष 1919 में बैसाखी के दिन हुए जलियांवाला बाग नरसंहार के लिए वामपंथी और स्वघोषित सेक्युलरिस्ट किसे दोषी ठहराएंगे? उस जनरल डायर को जिसने गोली चलाने का आदेश दिया या फिर गोरखा सैनिकों की उस टुकड़ी को जिसने डायर के आदेश पर निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोलियों की बौछार कर दी थी? एक समय ईस्ट इंडिया कंपनी में ब्राह्मण सैनिक काफी बड़ी संख्या में थे जिन्होंने अंग्रेजों के लिए पंजाब सहित कई युद्धों में भाग लिया और विजय प्राप्त की।

अंग्रेजों के आगमन से पूर्व मराठा सैन्य बल में महारों की बड़ी संख्या थी

भारत के ब्राह्मणों को आज किस पर गौरव करना चाहिए? मंगल पांडे पर जिन्होंने 29 मार्च 1857 को बैरकपुर छावनी में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल फूंका या उन ब्राह्मणों पर जो औपनिवेशिक प्रपंच का हिस्सा बने? कई ‘सेक्युलर’ बु्द्धिजीवियों ने कोरेगांव युद्ध को दलित अस्मिता की विजय से जोड़ा है। एक लंबा इतिहास है जो यह बताता है कि अंग्रेजों के आगमन से पूर्व मराठा सैन्य बल में महारों की बड़ी संख्या थी। इस समुदाय के सैनिक निर्भीक, बहादुर और निष्ठावान थे जिन्होंने मराठा साम्राज्य के संस्थापक और महान योद्धा छत्रपति शिवाजी महाराज और उनके पुत्र संभाजी को ताकत दी। अंग्र्रेजों ने वस्तुत: जातिभेद पर अधिक बल दिया। 1857 की क्रांति से भयभीत होकर अंग्रेजों ने कुख्यात ‘लड़ाकू-जाति’ सिद्धांत पर काम प्रारंभ कर दिया। इतिहास में जिन महार सैनिकों के बल पर अंग्रेजों ने कोरेगांव में मराठाओं को परास्त करने का दावा किया उनकी ही भर्ती पर वर्ष 1892 में यह कहकर रोक लगा दी कि ‘महार लड़ाकू नस्ल नहीं हैं, अपितु निम्न-जाति के अछूत हैं।’

प्रथम विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों ने महारों को सेना से निकाल दिया
प्रथम विश्व युद्ध के समय अंग्रेजों ने अपनी सेना में महारों की भर्ती बहाल तो की, किंतु युद्ध समाप्त होते ही महारों को सेना से फिर निकाल दिया। 1927 में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अंग्रेज सैन्य बेड़े में महारों को भर्ती किए जाने का प्रयास किया जिसका वीर सावरकर ने समर्थन किया। 1931 में रत्नागिरी में आयोजित महार सम्मलेन की अध्यक्षता भी सावरकर ने की। उसी वर्ष हिंदू महासभा के एक और विशिष्ट नेता डॉक्टर मुंजे ने चेतवोड कमेटी के समक्ष अपनी प्रस्तुति में ‘लड़ाकू-जाति’ सिद्धांत को मिथक बताया।

भारत ने विश्वासघात के कारण कई बार स्वतंत्रता खोई: अंबेडकर
महाराष्ट्र हिंसा की पृष्ठभूमि में 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में डॉक्टर अंबेडकर का भाषण काफी महत्वपूर्ण है। उनके अनुसार, ‘यह बहुत परेशान करने वाला तथ्य है कि भारत ने अपने ही लोगों के विश्वासघात के कारण कई बार स्वतंत्रता खोई है। जब सिंध पर मोहम्मद बिन कासिम ने हमला किया तब राजा दाहिर के सेनापति ने कासिम के साथियों से घूस लेकर अपने राजा के पक्ष में युद्ध करने से मना कर दिया। ऐसे ही जब शिवाजी हिंदुओं की मुक्ति के लिए लड़ रहे थे तब अन्य मराठा राजवंशों और राजपूतों ने मुगलों का साथ दिया। जब अंग्रेज सिख शासक गुलाब सिंह को हराने की कोशिश कर रहे थे तब उनके प्रमुख सेनापति चुप रहे और सिख साम्राज्य को बचाने में कोई मदद नहीं की।

अंबेडकर के नाम पर देश को पुन: बांटने की कोशिश

1857 में जब भारत के एक बड़े हिस्से ने अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम छेड़ा तब सिखों का एक समूह मूकदर्शक बना रहा। क्या इतिहास खुद को दोहराएगा? यह विचार मुझे चिंतित कर रहा है, क्योंकि भविष्य में शत्रु रूपी जातियों और मजहबों में बंटे भारत में कई राजनीतिक दल होंगे। क्या भारतीय देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या अपने पंथ को देश के ऊपर? मुझे पता नहीं, लेकिन यह निश्चित है कि यदि राजनीतिक दल देश के ऊपर पंथ को प्राथमिकता देते हैं तो हमारी स्वतंत्रता पर न केवल संकट आएगा, अपितु हम उसे हमेशा के लिए खो भी देंगे। हमें अपने रक्त की आखिरी बूंद तक देश की स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी।’ डॉ. अंबेडकर के नाम पर देश को पुन: बांटने की कोशिश करने वाले क्या बाबा साहब के उपरोक्त वक्तव्य के आलोक में अपनी विभाजनकारी नीतियों की समीक्षा करेंगे?


[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं स्तंभकार हैं ]