उत्तराखंड में दलबदल प्रकरण पर अनेक संवैधानिक, विधिक और राजनीतिक मुद्दे घुल-मिल गए हैं। संपूर्ण प्रकरण उच्च-न्यायालय में है। न्यायालय के समक्ष तीन महत्वपूर्ण विषय हैं। एक, क्या अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लागू होने के बावजूद सदन में शक्ति-परीक्षण हो सकता है? दो, क्या स्पीकर द्वारा विधायकों की सदस्यता समाप्त किए जाने के बाद भी न्यायालय उनको सदन में मतदान की इजाजत दे सकता है? तीन, क्या स्पीकर द्वारा विनियोग-विधेयक पारित घोषित करने के बावजूद केंद्र सरकार उसे अमान्य कर उसकी जगह अध्यादेश द्वारा राज्य के बजट का प्रावधान कर सकती है? दलबदल समस्या की शुरुआत तब हुई जब विगत 18 मार्च को मुख्यमंत्री हरीश रावत सरकार के विनियोग विधेयक पर नौ कांग्रेसी विधायकों ने पार्टी-व्हिप के विरुद्ध मतदान किया और फिर भी स्पीकर ने उसे पारित घोषित कर दिया। बागी विधायकों ने नेता प्रतिपक्ष अजय भट्ट के नेतृत्व में राज्यपाल से मुलाकात कर रावत सरकार के अल्पमत में होने की सूचना दी और उनको बर्खास्त करने की मांग की। राज्यपाल ने 28 मार्च को सरकार को बहुमत साबित करने को कहा, लेकिन एक दिन पहले 27 मार्च को ही विधानसभा निलंबित कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। राष्ट्रपति शासन दिन के 2.30 बजे लगा और एक घंटे में ही 3.30 बजे स्पीकर ने सभी नौ विधायकों को सदन की सदस्यता के अयोग्य घोषित कर दिया।

दलबदल-निरोधक कानून 1985 में बना था। मूल कानून के पैरा-3 के अनुसार किसी दल के एक-तिहाई विधायकों या सांसदों द्वारा पार्टी छोडऩे को 'दल-विभाजनÓ की श्रेणी में रखा गया था और उसे दलबदल नहीं माना गया था, लेकिन 2003 में संविधान के 91वें संशोधन द्वारा पैरा-3 को निरस्त कर दिया गया। अब केवल दलीय-विलय को ही दलबदल-निरोधक कानून में मुक्ति प्राप्त है, लेकिन उसके लिए सदन के कुल दो-तिहाई विधायकों या सांसदों द्वारा पार्टी छोडऩा जरूरी होगा। अत: उत्तराखंड में नौ विधायकों के द्वारा पार्टी-व्हिप का उल्लंघन करना और पार्टी के विरुद्ध मतदान करना, उनको दलबदलू की श्रेणी में खड़ा करता है जो उनकी सदन की सदस्यता समाप्त करने का पर्याप्त विधिक कारण था। लेकिन स्पीकर से एक गलती हो गई, जिसका लाभ विधायकों को मिल सकता है। दलबदल निरोधक कानून के पैरा-2(ब) के अनुसार यह प्रावधान है कि विधायकों ने यदि पार्टी-व्हिप के विरुद्ध भी मतदान किया है तो भी 15 दिन के भीतर उनकी पार्टी या पार्टी-व्हिप उन्हें माफ कर सकता है। अत: संविधान के प्रावधान के अनुसार पार्टी-व्हिप के विरुद्ध मतदान करने के 15 दिन के पूर्व स्पीकर उनके बारे में निर्णय नहीं ले सकता। अन्यथा वे विधायक उक्त प्रावधान का प्रयोग ही न कर सकेंगे। रावत सरकार ने 18 मार्च को विनियोग विधेयक पर मतदान कराया और कांग्रेस के नौ विधायकों ने उसके विरुद्ध मतदान किया। स्पीकर ने 19 मार्च को उन विधायकों के विरुद्ध दलबदल निरोधक कानून के तहत नोटिस जारी की और 27 मार्च को सभी नौ विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया। स्पीकर ने उनको 15 दिन का समय ही नहीं दिया, जिसके दौरान वे संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार व्हिप के उल्लंघन के लिए अपने दल से क्षमा प्राप्त कर सकते थे।

दूसरा असंवैधानिक कार्य स्पीकर से यह हुआ कि उन्होंने परस्पर विरोधी निर्णय लिया। एक तरफ तो उन्होंने विनियोग-विधेयक पारित घोषित कर दिया, जिसका निहितार्थ था कि नौ कांग्रेसी विधायकों ने विधेयक के पक्ष में मतदान किया अन्यथा वह पास ही न होता, दूसरी ओर उन्होंने विधायकों को पार्टी-व्हिप का उल्लंघन कर विधेयक के विरुद्ध मतदान करने हेतु अयोग्य घोषित कर दिया। जाहिर है, इन दोनों में एक ही सत्य हो सकता है। या तो विधायकों ने विधेयक के पक्ष में मतदान किया या उसके विरुद्ध।

उत्तराखंड का संपूर्ण मसला उलझ इसलिए गया कि राज्यपाल और केंद्र सरकार ने भी कुछ जल्दबाजी का परिचय दिया। संभव है कि विनियोग विधेयक पारित होने पर संशय और वित्तीय वर्ष की समाप्ति के मद्देनजर केंद्र सरकार को राष्ट्रपति शासन लगाने की जल्दी थी, लेकिन इससे पूरे प्रकरण में दो मुद्दे मुखर हो गए। एक दलबदल कानून के सम्यक पालन को लेकर जिसके संबंध में सर्वोच्च न्यायालय का 'किहोतो होलोहन बनाम जैचिल्लूÓ मुकदमा (1993) मार्गदर्शक है। दूसरा राष्ट्रपति शासन की संवैधानिकता जिस पर 'एसआर बोम्मईÓ (1994) मुकदमे के प्रतिबंध हैं। उत्तराखंड में दलबदल और राष्ट्रपति शासन के मुद्दे पर विधानसभा स्पीकर गोविंद सिंह कुंजवाल, राज्यपाल कृष्णकांत पाल और केंद्र सरकार, तीनों ने संवैधानिक और विधिक प्रक्रियाओं की उपेक्षा की और राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाया। जब दलबदल निरोधक कानून बनाया गया था, उस समय भी यह शंका व्यक्त की गई थी कि इससे समाधान नहीं होगा। आज 30 वर्षों बाद भी समस्या वैसी ही है। उलटे संसद और विधानसभाओं ने अपने सदस्यों और अध्यक्षों या सभापतियों के निर्णयों की संवैधानिकता को जांचने का अधिकार न्यायपालिका को सौंप दिया।

भारत में अजीब मानसिकता बन गई है। हर समस्या के इलाज के लिए हम न्यायपालिका की ओर देखते हैं। न्यायपालिका पर इतना आश्रित होना ठीक नहीं। दलबदल जैसी समस्याएं हमारी राजनीतिक संस्कृति से जुड़ी हैं। हमें उसे ठीक करने की जरूरत है। क्या राजनीतिक दल अपनी कार्यप्रणाली में लोकतांत्रिक शैली की उपेक्षा कर रहे हैं जिससे निर्वाचित प्रतिनिधियों को दल में घुटन हो रही है? क्या जनप्रतिनिधि नितांत स्वार्थी हो गए हैं, जिनके लिए दलीय निष्ठाओं का कोई मूल्य नहीं? क्या लोकतंत्र में जनता हाशिये पर आ गई है, जिसे निर्वाचन के बाद उपेक्षित कर दिया जाता है और दल परिवर्तन पर उसकी संवेदनाओं का कोई ध्यान नहीं रखा जाता? जब तक हम इन प्रश्नों के सकारात्मक हल नहीं ढूंढ लेते तब तक संसद और विधानसभाओं में गैर सैद्धांतिक दलबदल होते रहेंगे और संवैधानिक संकट उत्पन्न करते रहेंगे।

[ लेखक डॉ. एके वर्मा, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं ]