डॉ. देवेंद्र कुमार

पांच राज्यों और खासकर उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों के विश्लेषण का सिलसिला अभी भी कायम है। इसी क्रम में हाल में एक अग्रणी सर्वे संस्था के विशेषज्ञों ने लिखा कि उनके सर्वेक्षण में उत्तर प्रदेश में भाजपा का जनाधार 2014 के लोकसभा चुनावों के मुकाबले कुछ खास घटता नहीं दिख रहा था, पर इसी संस्था के एक्जिट पोल में कांटे का संघर्ष बताया गया था। इन विशेषज्ञों के आकलन और एक्जिट पोल में विरोधाभास का क्या कारण हो सकता है? आकलन की गलत पद्धति या फिर दल विशेष के प्रति दुराग्रह? अन्य अनेक चुनावी पंडितों ने भी यह बताया था कि भाजपा विरोधी दलों का पलड़ा भारी है, लेकिन जब परिणाम आए तो सारे आकलन ध्वस्त हो गए। आखिर वर्षों के अनुभव के बावजूद चुनावी विश्लेषक भाजपा की लहर क्यों नहीं देख सके?
भारत में चुनाव त्यौहार की तरह होते हैं। यहां समाज का हर वर्ग अपनी एक विशिष्ट राय रखता है। चूंकि हर वर्ग की राय उसकी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से प्रभावित होती है इसलिए उसे तटस्थ नहीं समझा जाता। चुनावी विशेषज्ञों यानी सेफोलॉजिस्ट के आकलन को आमतौर पर ज्यादा भरोसेमंद माना जाता है, किंतु पिछले कई वर्षों से यह देखा जा रहा है कि उनका आकलन गलत हो रहा है। इसका ताजा और सटीक उदाहरण उत्तर प्रदेश के चुनाव बने। जहां तक राजनीतिक विश्लेषकों का प्रश्न है, उनका एक बड़ा वर्ग वाम विचारधारा से प्रभावित है। उन्हें मोदी की लोकप्रियता रास नहीं आ रही है। इसी पूर्वाग्रह के चलते उन्होंने भी जाने-अनजाने यूपी की जमीनी सच्चाई को नकार दिया। यह वही वर्ग है जो हमेशा सांप्रदायिकता के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण की वकालत करता है। एक वर्ग ऐसा भी है जो गांवों का दौरा करने की जगह वातानुकूलित कमरे में बैठ कर सोशल मीडिया के जरिये अपना आकलन करता है। कुछ समय से चुनावी रणनीतिकारों की सक्रियता भी बढ़ी है। ये चुनावी माहौल को बनाने या फिर बिगाड़ने का काम करते हैं। ऐसा लगता है कि चुनावी विशेषज्ञों ने जमीनी हकीकत को समझने की कोशिश करने के बजाय इन रणनीतिकारों के मोदी विरोधी अभियान को सच मान लिया और इसका ही यह नतीजा हुआ कि वे चुनावी माहौल भांपने में पूरी तरह नाकाम रहे। हालांकि कुछ गिने चुने लोगों ने जमीनी हकीकत को समझा परंतु कृत्रिम रूप से पैदा किए गए भाजपा विरोधी माहौल के चलते वे अपनी बात प्रखरता से नहीं रख पाए। आम तौर पर सेफोलॉजिस्ट्स वोटों के रुझान का विश्लेषण करते हैं। इस दौरान वे यह भी देखते हैं कि पिछले चुनाव की तुलना में कितने वोट बढ़े या घटे? उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को 15 फीसद और 2014 के लोकसभा चुनाव में 44 फीसद मत मिले थे। 2017 में 41 फीसद मतों को पाने के लिए 2012 को आधार बनाने पर भाजपा को 26 फीसद की कठिन सकारात्मक स्विंग और 2014 को आधार बनाने पर 3 फीसद की नकारात्मक स्विंग चाहिए थी। सेफोलॉजिस्ट्स के गलत आकलन का मुख्य कारण शायद 2012 को आधार बनाना रहा, क्योंकि 2014 में हुए भारी बदलाव के चलते 26 फीसद की भारी सकारात्मक स्विंग पकड़ पाना असंभव था। सवाल है कि जब 2012 के विधानसभा चुनाव के परिणामों को आधार बनाना तर्कसंगत नहीं था तो सेफोलॉजिस्ट्स ने गलत पद्धति क्यों अपनाई?
आंकड़ों के विश्लेषण के अलावा आंकड़ों का सही एकत्रीकरण भी चुनावी सर्वेक्षण की सफलता के लिए आवश्यक है। इस चुनाव में भाजपा समर्थक एक बड़ा वर्ग, जो गरीब पिछड़े और दलित समाज से आता है, सत्ताधारी दल के भय के चलते काफी शांत था। संभवत: इसी कारण उसने सर्वे करने वालों को सही उत्तर नहीं दिए। मीडिया के लोगों ने भी इस मौन वोटर का मन जानने का प्रयास किए बिना पूर्वाग्रह के चलते अनुमान लगा लिया कि वह भाजपा के साथ नहीं है। यह अनुमान गलत निकला, क्योंकि वोटरों का बड़ा वर्ग भाजपा के साथ था। वैचारिक पूर्वाग्रह और प्रयासों में कमी के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश के बदलते सामाजिक समीकरणों से अनभिज्ञता भी चुनावी विशेषज्ञों की असफलता का एक प्रमुख कारण रही।
उप्र के मतदाताओं को छह राजनीतिक श्रेणियों में बांटा जा सकता है: सवर्ण, यादव, गैर यादव पिछड़े, जाटव, गैर जाटव दलित और मुस्लिम। बहुमत के लिए कम से कम तीन वर्गों का समर्थन जरूरी था। भाजपा को सवर्णों और गैर यादव पिछड़ों का भारी और गैर जाटव दलितों का अच्छा-खासा समर्थन मिला। सपा के साथ यादव एवं मुस्लिम और बसपा के साथ जाटव मजबूती से डटा रहा। भाजपा के पक्ष में लगभग 60 फीसद मतों की गोलबंदी हुई। चुनावी विश्लेषक या तो प्रदेश के इस नए सामाजिक समीकरण को समझ नहीं पाए या फिर भाजपा विरोध के चलते उन्हें सच्चाई दिखाई नहीं दी। यदि गैर यादव पिछड़ों से खेतिहर कुर्मी और लोध को निकाल दें तो बाकी जातियां भूमिहीन हैं। उनके पारंपरिक व्यवसाय छिन गए हैं। अब निषाद की नदी से, कुम्हार की मिट्टी से और लोहार की लोहे से जीविका नहीं चलती। इनके लोग मजदूर बन कर गरीबी का शिकार हैं, क्योंकि अशिक्षा और संसाधनहीनता की वजह से वे आरक्षण का भी लाभ नहीं ले पाते। पिछड़ों के इस समाज को नव-दलित कहा जा सकता है। दूसरी ओर मायावती के सत्ता में रहते समय जाटव समाज को अधिकतर लाभ मिला और वह आरक्षण का भी मुख्य लाभार्थी रहा। जाटव समाज अपेक्षाकृत सक्षम-संपन्न है, परंतु गैर जाटव दलित आज भी गरीबी का शिकार है। 2014 के लोकसभा चुनावों के अलावा पिछले कई चुनावों में इस गरीब तबके का मत लगातार सपा और बसपा के बीच बंटता रहा परंतु मोदी ने उज्ज्वला, मुद्रा और जनधन जैसी योजनाओं से गरीबों के दिल में न सिर्फ स्थान बनाया, बल्कि उनमें बेहतर जीवन की उम्मीद भी जगाई। नोटबंदी से भी मोदी की गरीब समर्थक छवि मजबूत हुई। इसके अतिरिक्त संगठन और उम्मीदवारों के चयन में भी गैर यादव पिछड़ों और गैर जाटव दलितों को प्राथमिकता देकर भाजपा ने इस वर्ग को न्यायोचित प्रतिनिधित्व दिया। नतीजतन सपा और बसपा से हताश यह वर्ग भाजपा के पीछे लामबंद हो गया। वाम विचारधारा से ग्रसित विश्लेषकों ने मोदी युग में भी भाजपा को सिर्फ शहरी, सवर्ण और माध्यम वर्ग की पार्टी समझा और आम जनता को समझने की कोशिश नहीं की। यदि उन्हें प्रासंगिक बने रहना है तो बदलते भारत की सच्चाई को समझना होगा।
[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं ]