डॉ. भरत झुनझुनवाला

सरकार ने राष्ट्रीय खरीद नीति बनाने की घोषणा की है। केंद्र सरकार द्वारा हर साल लगभग दो लाख करोड़ रुपये के माल की खरीदारी की जाती है। इसके तहत कार, एयर कंडीशनर से लेकर फाइल कवर इत्यादि सामान खरीदे जाते हैं। अब सरकार चाहती है कि इस खरीद में स्पष्ट रूप से घरेलू निर्माताओं को प्राथमिकता दी जाए। आयातित फाइल कवर अगर 8 रुपये में उपलब्ध हो तब भी घरेलू फाइल कवर को 10 रुपये में खरीदा जाए। जाहिर है कि ऐसा करने से सरकार पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा। जो सामान 8 रुपये में मिल सकता था उसे 10 रुपये में खरीदा जाएगा, लेकिन घरेलू खरीद के दूसरे लाभ हैं। जैसे देश में फाइल कवर बनाने में रोजगार के अवसर सृजित होंगे। बेरोजगारों द्वारा अपराध कम किए जाएंगे। इन्हें मनरेगा में रोजगार की भी जरूरत नहीं रहेगी और सरकार पर कल्याणकारी योजनाओं का आर्थिक बोझ कम होगा। निर्माताओं द्वारा नई तकनीक विकसित की जाएंगी। स्याही आदि की मांग बढ़ेगी और ढुलाई के लिए ट्रकों की जरूरत पड़ेगी। फाइल कवर के घरेलू उत्पादन से अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी। अर्थशास्त्र में इसे गणक अथवा मल्टीप्लायर कहा जाता है। फाइल कवर विदेशों से खरीदने पर फायदा उन्हीं देशों को मिलेगा। इसलिए घरेलू उत्पादकों से महंगा माल खरीदना भी लाभप्रद होता है। बताते चलें कि अमेरिका ने इसी तर्ज पर ‘बाय अमेरिकन स्वेयर’ यानी अमेरिकी सामान की खरीद का संकल्प लिया है। इसके अंतर्गत सरकारी खरीद में घरेलू उत्पादकों को प्राथमिकता दी जाती है। भारत सरकार की यह पहल सही दिशा में है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए।
मुद्दा यह है कि घरेलू खरीद के जो लाभ सरकारी खरीद में हासिल होते हैं वे लाभ बाजार की खरीद से भी उतने ही हासिल होते हैं। मान लीजिए विदेश में बने फाइल कवर 8 रुपये में बाजार में उपलब्ध है। ग्राहक उन्हें इसलिए खरीदना पसंद करता है, क्योंकि घरेलू फाइल कवर 10 रुपये में मिलता है। ऐसे में सरकार यदि फाइल कवर पर 3 रुपये का अतिरिक्त आयात कर लगा दे तो आयातित फाइल कवर का दाम 11 रुपये हो जाएगा। तब ग्राहक 10 रुपये में उपलब्ध घरेलू फाइल कवर ही खरीदेगा। देश में फाइल कवर बनाने की फैक्टरियां चल निकलेंगी। इनमें रोजगार के अवसर बनेंगे और स्याही आदि की मांग बढ़ेगी। ग्राहक पर दो रुपये का अतिरिक्त बोझ जरूर पड़ेगा, परंतु अर्थव्यवस्था सहित देश की समग्र जनता को रोजगार आदि से ज्यादा लाभ हो सकता है। यदि सरकार द्वारा महंगे घरेलू फाइल कवर खरीदना अर्थव्यवस्था के लिए लाभप्रद है तो बाजार में ग्राहक द्वारा भी घरेलू फाइल कवर खरीदना अर्थव्यवस्था के लिए उतना ही लाभदायक होगा, लेकिन बाजार में घरेलू उत्पादन को संरक्षण देने से विश्व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यूटीओ के नियमों का उल्लंघन हो जाता है।
डब्ल्यूटीओ के नियमों में प्रत्येक देश द्वारा आयात पर आरोपित की जाने वाली आयात कर की अधिकतम सीमा तय की गई है। इससे अधिक आयात कर लगाने पर हमें डब्ल्यूटीओ से बाहर निकलना पड़ सकता है। लिहाजा घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने का निर्णय लेने से पहले हमें डब्ल्यूटीओ से मिलने वाले लाभ-हानि का पुनर्मूल्यांकन करना जरूरी है। डब्ल्यूटीओ की वर्तमान में मुख्य रूप से दो व्यवस्थाएं हैं। पहली व्यवस्था मुक्त व्यापार की है। इस व्यवस्था में हमें यह फायदा हासिल है कि हमारे विनिर्माताओं को दूसरे देशों के बाजारों में आसानी से प्रवेश मिल जाता है। इसके जरिये भारतीय कपड़े, गलीचे एवं दवाएं भारी पैमाने पर निर्यात की जा रही हैं। जहां तक मुक्त व्यापार से नुकसान का सवाल है तो इसकी वजह से हमारे बाजार चीनी सामान से पट गए हैं, क्योंकि चीनी सामान की आवक आसान हो गई है। इससे हमारे उद्योगों के समक्ष संकट उत्पन्न हो रहा है। डब्ल्यूटीओ में दूसरी व्यवस्था पेटेंट की है जिसे बौद्धिक संपदा अधिकार के नाम से भी जाना जाता है। इस व्यवस्था के अंतर्गत किसी भी नए उत्पाद के पेटेंटधारक को 20 वर्षों तक माल को मनचाहे मूल्य पर बेचने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इस व्यवस्था से हमें यह लाभ है कि वस्तुओं के पेटेंट अधिकार रखने वाली हमारी कंपनियां दुनिया के दूसरे देशों में भी अपने उत्पादों को महंगा बेचकर मोटी कमाई कर सकती हैं, मगर इस व्यवस्था में नुकसान का दूसरा पहलू भी है और वह यह कि इससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा अपने पेटेंट उत्पाद देश में ऊंची कीमतों पर बेचने से भारी लाभ कमाया जा रहा है। जैसे माइक्रोसॉफ्ट के विंडोज सॉफ्टवेयर। देखा जाए तो मुक्त व्यापार और पेटेंट, दोनों तरह की व्यवस्थाओं से हमें फायदे और नुकसान दोनों होते हैं। मेरा आकलन है कि हमें मुक्त व्यापार से न्यून लाभ है, मगर निर्यातों से हमें लाभ अवश्य होता है, परंतु चीन से आयातित माल से नुकसान अधिक उठाना पड़ता है। दूसरी ओर पेटेंट कानून का हमें भारी खामियाजा उठाना पड़ता है। चूंकि वर्तमान में विश्व के अधिकांश पेटेंट विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में हैं। ऐसे में हमें बाजार में घरेलू माल के उत्पादन को संरक्षण देना चाहिए। यहां तक कि अगर जरूरत पड़े तो डब्ल्यूटीओ से भी बाहर आ जाना चाहिए। हमारी अर्थव्यवस्था का केंद्र अब सेवा क्षेत्र होता जा रहा है। वर्ष 2013-14 में हमने 151 अरब डॉलर की सेवाओं का निर्यात किया जबकि 314 अरब डॉलर के माल के निर्यात की तुलना में सेवा क्षेत्र से जुड़े निर्यात कम थे, मगर सेवाओं के निर्यात में तेजी से वृद्धि हो रही है। वर्ष 2015-16 की आर्थिक समीक्षा के अनुसार वर्ष 2001 में सेवाओं का निर्यात 17 अरब डॉलर के स्तर पर था जो वर्ष 2014 में बढ़कर 151 अरब डॉलर तक हो गया। सेवा निर्यातों के उभरते चमकीले क्षेत्र में डब्ल्यूटीओ से बाहर आने का प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। वैसे भी सेवा क्षेत्र को लेकर डब्ल्यूटीओ में समझौता भी नहीं हुआ है। अत: जरूरी है कि डब्ल्यूटीओ के अंतर्गत माल के व्यापार एवं पेटेंट के कारण होने वाले लाभ एवं हानि का समग्र अध्ययन कराया जाए। तभी इस मुद्दे पर सरकार को निर्णय लेना चाहिए।
विदेशी निवेश का विषय भी इसी प्रकार का है। घरेलू कंपनियों के मुनाफे का भी गणक प्रभाव होता है। मान लीजिए कि विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनी हिंदुस्तान यूनीलीवर ने भारत में लाइफबॉय साबुन बेचा। मान लेते है कि इस साबुन के दाम कम और गुणवत्ता अधिक है। कंपनी ने उपभोक्ता को अच्छा माल उपलब्ध कराया, लेकिन इस साबुन के उत्पादन में जो लाभ हुआ उसके एक बड़े अंश को कंपनी ने अपने नीदरलैंड स्थित मुख्यालय भेज दिया। लाभ के इस अंश का गणक उन देशों में उत्पन्न हुआ। कंपनी ने नीदरलैंड में उस पर अधिक कर अदा किया जिससे नीदरलैंड की सरकार ने वायु ऊर्जा में अनुसंधान को बढ़ावा दिया। यदि लाइफबॉय साबुन भारत में उपलब्ध न हो तो ग्राहक को गोदरेज का नं. 1 साबुन खरीदना पड़ेगा। एक बार मान लेते हैं कि यह साबुन महंगा है। इसे खरीदने से ग्राहक पर बोझ पड़ेगा, लेकिन गोदरेज द्वारा कमाए गए लाभ का पुनर्निवेश भारत में अधिक होगा जिसका गणक भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देगा।
राष्ट्रीय खरीद नीति में घरेलू उत्पादन को प्राथमिकता देने का सरकार का प्रयास स्वागतयोग्य है, लेकिन इसमें आगे तेजी लाने की जरूरत है। इसी तर्ज पर मुक्त व्यापार से पीछे हटकर कई आयातित वस्तुओं पर अधिक कर लगाकर घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहन देना चाहिए और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को वापस भेजकर स्वदेशी उद्यमियों को प्रोत्साहन देना चाहिए।
[ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री और आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं ]