एक हजार और पांच सौ रुपये के नोट चलन से बाहर करने के फैसले के बाद जिस तरह काले धन को सफेद बनाने की कोशिश की गई और अभी भी जारी है उससे नोटबंदी का उद्देश्य विफल होता दिख रहा है। सरकार को पहले से इसका अहसास होना चाहिए था कि नोटबंदी की घोषणा के साथ बड़े पैमाने पर काले धन को सफेद करने की कोशिश हो सकती है। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं था कि भारत में काले धन की एक समानांतर अर्थव्यवस्था चल रही। इसे समाप्त करने के लिए जब बड़े नोट बंद करने का फैसला अप्रत्याशित तौर पर आया तो लोग पहले तो सकते में आए, फिर अपने-अपने काले धन को बचाने के लिए अनुचित तौर-तरीकों में जुट गए। इनमें बड़े व्यापारियों से लेकर, सरकारी अधिकारी एवं कर्मचारी और निजी कंपनियों के लोग भी शामिल हैं। कई पुलिस वालों ने भी बहती गंगा में हाथ धोए और कई बैंकों के अधिकारियों एवं कर्मचारियों की मिलीभगत से भी काले धन को सफेद किया गया। किसी ने सोना या गहने खरीदे तो किसी ने संपत्ति। सरकारी नियमों की खामी का भी फायदा उठाया गया। काले धन के कारोबारियों ने पूर्वोत्तर के लोगों को आयकर से छूट के प्रावधान का भी दुरुपयोग किया। कुछ लोगों और खासकर बिल्डरों ने अपने मजदूरों और कर्मचारियों को काले धन को सफेद करने में लगा दिया। इसी तरह बड़े पैमाने पर जन-धन खातों का दुरुपयोग हुआ। यही कारण रहा कि सरकार को इन खातों की जांच का फैसला लेना पड़ा।
बीते दिनों सरकार ने आयकर कानून में बदलाव के जो संकेत दिए उसके पीछे भी काले धन को सफेद करने की कोशिश जारी रहना माना जा रहा है। अब सरकार इस तैयारी में है कि भारी-भरकम धनराशि बैंकों में जमा कर रहे जो लोग उसका स्नोत नहीं बता पाते उनसे पचास प्रतिशत टैक्स एवं जुर्माना वसूला जाए और चार-पांच साल तक इस रकम को बैंकों में ही रखने की शर्त लगाई जाए। इससे शायद पूरा का पूरा काला धन बैंकों में जमा हो जाए, लेकिन इससे नोटबंदी के मूल उद्देश्य को झटका लगेगा। वैसे भी नोटबंदी के बाद जिस तरह हर दूसरे-तीसरे दिन नोट बदलने अथवा जमा-निकासी को लेकर नियम बदले गए और अब आयकर नियमों में बदलाव की जो बात की जा रही है उससे यही लगता है कि सरकार इसका अनुमान नहीं लगा पाई कि कैसे हालात सामने आएंगे? जो नियम-कायदे नोटबंदी के पहले ही दिन घोषित किए जाने चाहिए थे उनमें दो हफ्ते का विलंब सरकार की तैयारियों की पोल खोलता है।
काले धन के खिलाफ अपनी लड़ाई के तहत मोदी सरकार ने जनता से अधिक से अधिक नकद विहीन लेन-देन को अपनाने का आह्वान किया है। यह सही है कि काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था खत्म करने के लिए यह आवश्यक है कि हम नकदी का कम से कम इस्तेमाल करने वाले देश की ओर तेजी से बढ़ें, लेकिन भारत जैसे देश में यह उम्मीद सही नहीं कि रातोंरात लोग अपनी आदत बदल लेंगे। देश में करीब नब्बे प्रतिशत काम नकद लेन-देन से होते हैं। इनकी जगह मोबाइल एप और डेबिट-क्रेडिट कार्ड के इस्तेमाल को प्रचलन में लाने में समय लगेगा। अभी अपने देश में मोबाइल अथवा इंटरनेट आधारित बैंकिंग सेवाएं इतनी सशक्त नहीं कि वे पूरे देश की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। कैशलेस लेन-देन के ढांचे को पहले इतना सशक्त किया जाना चाहिए था कि वह देश के लगभग हर नागरिक को अपनी सेवाएं दे सके। इसी तरह बैंकिंग ढांचे को भी विस्तार देने के साथ दुरुस्त किया जाना चाहिए था। यह सब करने के बाद ही यह अपेक्षा सही होती कि भारत तमाम विकसित देशों की तरह कैशलेस सोसाइटी बन सकता है। सरकार को यह भी पता होना चाहिए था कि संगठित और गैर संगठित क्षेत्रों में काम कर रहे लोगों का वेतन या मजदूरी नकद दिए जाने के कारण उनके समक्ष यकायक नकदी का गंभीर संकट खड़ा हो सकता है। बेहतर होता कि ऐसे लोगों को वेतन और मजदूरी का भुगतान उनके खाते तक पहुंचाने का नियम पहले ही बना दिया जाता। इसमें जन-धन योजना के तहत खुले खाते मददगार हो सकते थे। एक अन्य लाभ यह भी होता कि हर श्रमिक और दिहाड़ी मजदूर बैंक खाते से लैस हो गया होता। इनमें से कई डेबिट कार्ड भी हासिल कर चुके होते।
नोटबंदी के उपरांत देश में जो स्थितियां बनीं उनके विश्लेषण से यही लगता है कि उनसे निपटने की बेहतर तैयारी नहीं की गई। इसमें दो राय नहीं कि नोटबंदी के ऐतिहासिक फैसले के दीर्घकालिक लाभ देश और अर्थव्यवस्था के लिए शुभ होंगे, लेकिन इसके तात्कालिक असर के रूप में लोगों को जिस परेशानी का सामना करना पड़ रहा उसे सरकार कम कर सकती थी। चूंकि पहले सतर्कता नहीं बरती गई इसलिए यह सवाल भी खड़ा हो रहा कि आखिर इतनी कम तैयारी के साथ इतना बड़ा फैसला क्यों ले लिया गया? इस पर हैरत नहीं कि कम तैयारियों के सवाल ने विपक्ष को हमलावर होने का मौका दे दिया है। इस सबके बावजूद विपक्षी दलों और विशेषकर कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, बसपा और आम आदमी पार्टी का तीखा विरोध उनकी नकारात्मक राजनीति का नया नमूना ही है। कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल जिस तरह संसद को नहीं चलने दे रहे उससे फिर यह साबित हो रहा है कि वे अंध विरोध पर आमादा हैं। नोटबंदी के फैसले के क्रियान्वयन को लेकर विपक्षी दलों की शिकायतें जायज हो सकती हैं, लेकिन इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि नोटबंदी का फैसला दूरगामी परिणामों वाला है। कांग्रेस की इस चिंता से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि नकदी का संकट सात-आठ माह तक दूर नहीं होने वाला। उसे यह समझना होगा कि सरकार पांच सौ और एक हजार रुपये के नोटों की जगह बड़ी मात्रा में नए नोट एक झटके में बाजार में लाने का काम नहीं कर सकती। इससे काले धन वालों को आसानी होगी। वैसे भी अभी तक जितने मूल्य के बड़े नोट प्रचलन में थे वे अर्थव्यवस्था की आवश्यकता से कहीं ज्यादा थे। ऐसे में इस तर्क की कोई गुंजाइश नहीं कि जितने मूल्य के नोट वापस लिए गए उतने ही नए नोट बाजार में लाए जाएं।
नि:संदेह सरकार की यह सोच सही थी कि नोटबंदी की घोषणा यकायक और गोपनीय तरीके से ही होनी चाहिए थी। अगर इसमें समय दिया जाता तो लोग कहीं आसानी से अपने काले धन को ठिकाने लगा देते, लेकिन इतना बड़ा फैसला लेते हुए यह तैयारी तो की ही जानी चाहिए थी कि नोट बदलने अथवा बैंकों-एटीएम से पैसा निकालने में लोगों को कम से कम तकलीफ होती। पहले जरूरी कदम न उठाए जाने से एक ओर जहां नोटबंदी का फैसला आते ही तमाम लोग अपने-अपने काले धन को ठिकाने लगाने में जुटे वहीं दूसरी ओर नकदी संकट ने ज्यादातर कारोबार को लगभग ठप करने का काम किया। हर स्तर पर छोटे-बड़े कारोबार के प्रभावित होने या फिर थम जाने का असर अर्थव्यवस्था पर पड़ना स्वाभाविक है। चूंकि नकदी संकट कायम है और लोग सरकार के अगले कदमों पर निगाह लगाए हुए हैं इसलिए अभी भी अनिश्चितता का माहौल है। सरकार की पहली कोशिश इस माहौल को दूर करने की होनी चाहिए, क्योंकि ऐसा होने पर ही आर्थिक-व्यापारिक गतिविधियां तेज होंगी।

[ लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]