मुक्ति न गृहस्थ को पहचानती है और न संन्यासी को। जिस मनुष्य के मन में मुक्ति की तीव्र इच्छा और ललक होगी उसे मुक्ति मिल जाएगी। फिर वह चाहे गृहस्थ हो या संन्यासी। मुक्ति पर किसी संन्यासी का कोई ठेका नहीं और न गृहस्थों के लिए कोई वहां मनाही है। मुक्ति तो जहां भगवान की भक्ति आ जाए वहां अपने आप आ जाती है। जहां मुमुक्षा-जिज्ञासा का उदय हो जाएगा वहीं सद्गुरु उपदेश देकर मार्ग दिखा देंगे। प्रश्न उठता है कि ब्रह्माजी गृहस्थ थे कि संन्यासी? उनके पुत्र वशिष्ठजी गृहस्थ थे कि संन्यासी? वे सद्गृहस्थ थे, पुरोहित कृत्य करते थे। उनके पुत्र शक्ति भी गृहस्थ थे। शक्ति के पुत्र पराशर भी गृहस्थ थे। पराशर के पुत्र व्यास भी गृहस्थ थे। उनके बाद शुकदेव, गौड़पाद, गोविंदपाद और शंकराचार्य आदि संन्यासी हुए। इसका एक ही अर्थ है कि ज्ञान, संप्रदाय, गृहस्थ और संन्यासी में भेद नहीं रखता। ज्ञान किसी भी योग्य अधिकारी को हो सकता है और वह ज्ञान-संप्रदाय का गुरु भी हो सकता है। शुकदेवजी का तो यज्ञोपवीत भी नहीं हुआ था-संन्यास की तो बात ही क्या? वे संन्यासियों के गुरु माने गए हैं। इसलिए आप सद्गुरु की शरण में जाइए। आपकी मुमुक्षा, आपकी जिज्ञासा आपको इस योग्य बना देगी कि आप समझ सकें कि ज्ञान कैसे होता है? उस समय यदि यह समझ में आए कि संन्यासी हुए बगैर ज्ञान का अनुभव नहीं हो सकता तब आप संन्यासी हो जाएं, लेकिन पूर्व में शुद्ध बुद्धि प्राप्त कीजिए।
जब संसार में दुख और दोष का दर्शन होगा, तब इससे छूटने की सच्ची इच्छा होगी। जो लोग व्याख्यान देकर, प्रवचन करके मोक्ष की इच्छा उत्पन्न करते हैं वह नितांत झूठी है और उनके मन में विश्वास भी नहीं होता कि हम ब्रह्म हैं, श्रद्धा भी नहीं होती और फिर वह इस लोक में फंसे रह जाते हैं। इसलिए पहले इधर से वैराग्य होकर इससे छूटने की इच्छा यानी मुमुक्षा हो, उधर ब्रह्म का जो आनंद है और उस आनंद को अनुभव करने की लालसा यानी जिज्ञासा हो तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति अमानवीय गुणों से मुक्त होकर मुक्ति को प्राप्त होता है। मोक्ष की सच्ची इच्छा वही है जो सब प्रकार के पशुत्व से मुक्त होना चाहे। जो किसी प्रकार के पशुत्व से दुखी है, उसको इससे छूटने की इच्छा होगी और यदि अपनी आत्मा से अन्य किसी वस्तु की सत्ता रहेगी, तो वह मोक्ष सच्चा नहीं होगा।
[ डॉ. विजय प्रकाश त्रिपाठी ]