भक्ति वासना का दिव्य रूपांतरण है। वासना शरीर के तल पर होती है। इसमें शरीर मिलते हैं और मन मिल नहीं पाते हैं इसलिए इसका अंतिम परिणाम विषाद होता है। जहां मन मिलते हैं उसे प्रेम कहते हैं। मन मिलते हैं ऐसा इसलिए, क्योंकि मन शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म हैै। इससे तृप्ति मिलती है। भक्ति में आत्माओं का योग-संयोग होता है, विलय-विसर्जन होता है। यह स्थिति प्रेम से भी सुखद है। इससे शरीर और मन मिलते रहते हैं। वासना घोर अतृप्ति देती है। भक्ति में सब कुछ आनंद के समुद्र में डूब जाता है, बचता कुछ नहीं है। आज सर्वत्र वासना का कलुष साम्राज्य छाया है। इंद्रिय सुख प्राप्त करने के तमाम सुविधा-साधन जुटाए जाते हैं। इंद्रियां अपने-अपने सुख पाने के लिए काल्पनिक उधेड़बुन करती रहती हैं। इसमें सर्वाधिक हलचल मचाने वाली इंद्रियां काम-वासना से संबंधित हैं। काम-वासना को दैहिक सुख का चरम माना जाता है। चूंकि सामान्य इंसान को इस सुख से ज्यादा बडे़ सुख की न तो कल्पना होती है और न कोई प्रयास। इसलिए यह परमसुख मान लिया जाता है। इंसान दैहिक सुखरूपी वासना के पंक में धंसता जाता है, परंतु उसे कभी तृप्ति नहीं मिलती। घोर अतृप्ति में तृप्ति की चाहत के लिए वासना की आग में देह जलती रहती है और इसी जलन में वह क्षीण सुख और विरोधाभासी कल्पना में मग्न रहता है। वासना की इस महापंकिल भूमि में विषादरूपी पंक की दुर्गंध छाई रहती है। वासना बहिर्मुखी है।
स्थूल में होने के कारण यह सूक्ष्म की अवहेलना है। देह से वासना कभी तृप्त नहीं होती है। हां, यह रूपांतरित हो सकती है। रूपांतरण के बाद वासना प्रेम में परिवर्तित हो जाती है। वासना से सामथ्र्य घटती है। प्रेम हमारे आंतरिक दिव्य गुणों को शिखर तक ले जाता है। प्रेम अबोल है, बोलता नहीं। प्रेम से पगा मन बिन बोले ही सब कुछ कह जाता है। विद्वान कहते हैं-देह से ऊपर उठो, मन से मिलो। अगर मिल जाओगे तो प्रेम भक्ति हो जाएगा। प्रेम से मन का सारा मैल गिर जाएगा। मन प्रकाशित हो उठेगा। भक्ति प्रेम से भी अनंत गुना सुखद और पावन है। प्रेम मन को मिलाता है। भक्ति में आत्माएं मिलती हैं। वासना जलाती है। प्रेम मुक्त करता है, तृप्ति देता है। भक्ति आनंद देती है। प्रेम और भक्ति की एक बूंद सैकड़ों लोगों की दैहिक वासना से बढ़कर है। इसलिए दैहिक तल से ऊपर उठकर अपने ही अंदर आनंद के महासरोवर में डूब जाना ही श्रेयस्कर है।
[ डॉ. सुरचना त्रिवेदी ]