कुलदीप नैयर

कश्मीर में पत्थरबाजी पाकिस्तान के आदेश पर हो रही हो या फिर कट्टरपंथियों की पुकार पर, वास्तविकता यह है कि घाटी अशांत है। कई स्कूल जला दिए गए हैं और छात्रों को डर है कि वे अगर क्लास में गए तो उन्हें सजा दी जाएगी। कहा जाता है कि अलगाववादी पढ़ाई के बहिष्कार के आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं। नतीजा यह हुआ है कि बाकी छात्रों के लिए परीक्षा की तैयारी और इसमें शामिल होना कठिन हो रहा है, जबकि देश के बाकी हिस्से में यह शांति से हो रहा है। अलगाववादियों को यह समझना चाहिए कि राजनीतिक आंदोलन छात्रों को असहाय न बनाए और उन्हें कष्ट में न डाले। आंदोलन का परिणाम यह हुआ है कि पर्यटकों की संख्या घट गई है। हालत ऐसी हो गई है कि सैयद अली शाह गिलानी ने पर्यटकों को किसी भी हाल में सुरक्षा देने का आश्वासन देने के लिए श्रीनगर की सड़कों पर जुलूस का नेतृत्व किया। उनका जो भी आश्वासन हो, पर्यटक कश्मीर के बदले दूसरे पर्यटन स्थलों को पसंद करने लगे हैं। पर्यटकों के नजरिये से तो इसका मतलब समझा जा सकता है, लेकिन इसके कारण डल झील के शिकारा और नागिन बाग के डोंगाओं को काम नहीं मिल रहा है। एक साधारण कश्मीरी को दुष्परिणाम भुगतने पड़ रहे हैं। वैसे भी राज्य की अर्थव्यवस्था को काफी चोट पहुंची है। लगता है कि मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को हालात के बारे में कुछ पता नहीं है। वह कई बार कह चुकी हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही ऐसे व्यक्ति हैं जो कश्मीर के संकट का समाधान कर सकते हैं। वह अपनी पीपुल्स डेमोके्रटिक पार्टी और केंद्र में शासन का नेतृत्व करने वाली भाजपा के बीच गठबंधन को बनाए रखने पर जोर दे रही हैं।
नई दिल्ली को इसका भी विश्लेषण करना चाहिए कि क्यों शब्बीर शाह जैसे भारत समर्थक ने खुद को आजादी का समर्थक बना लिया है? शायद घाटी में उन्हें अपने काम को दिशा देने के लिए जगह नहीं मिल रही है जिसकी उन्हें सख्त जरूरत है। भाजपा का उनके जैसे लोगों के साथ कोई संपर्क नहीं रहा है। यही बात यासिन मलिक के साथ है जो भारतीय संघ के भीतर कोई समाधान चाहते थे, लेकिन नई दिल्ली धारा 370 को इस हद तक खींच ले गई कि सत्ता दिल्ली में केंद्रित होने लगी है। कश्मीर में लोग आम तौर पर गरीब हैं और वे रोजगार चाहते हैं। उन्हें लगता है कि सिर्फ विकास जिसमें पर्यटन शामिल है, से ही रोजगार आ सकता है। हाल तक कश्मीरी नई दिल्ली के विरोध में बंदूक उठाने के खिलाफ थे। गृहमंत्री राजनाथ सिंह कश्मीर को सामान्य हालात में लौटने में मदद के लिए कुछ तरीके अमल में लाते रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्य से कश्मीरियों में ऐसी भावना है कि उग्रवादी जो कुछ कर रहे हैं या करने की कोशिश कर रहे हैं उससे उन्हें पहचान मिलती है। इसलिए उग्रवादियों का अंदर से कोई विरोध नहीं होने की जो आलोचना है उसे लोगों के अलगाव का हिस्सा समझना चाहिए।
यह दुर्भाग्य की बात है कि नई दिल्ली ने कुछ साल पहले कश्मीर में आई विनाशकारी बाढ़ के बाद जिस पैकेज की घोषणा की थी उसे अभी तक नहीं दिया है। मीडिया या राजनीतिक पार्टियों की ओर से इसकी कोई आलोचना नहीं हुई। किसी नेता ने भी ध्यान नहीं दिलाया कि नई दिल्ली वायदे से मुकर गई। इन सभी बातों का कश्मीर में यही अर्थ निकाला जाता है कि यह उपेक्षापूर्ण रवैये का चिन्ह है। मेरा अभी भी विश्वास है कि 1953 का समझौता, जिसने भारत को रक्षा, विदेशी मामलों और संचार पर नियंत्रण दिया है, राज्य में स्थिति सुधार सकता है। कश्मीरी नौजवान, जो राज्य की हैसियत और हालत के कारण गुस्से में हैं, को इस आश्वासन से जीता जा सकता है कि उनके लिए पूरा भारतीय बाजार व्यापार या सेवा के लिए खुला है, लेकिन सिर्फ इससे काम नहीं चलेगा। नई दिल्ली को रक्षा, विदेशी मामलों और संचार को छोड़ कर बाकी क्षेत्रों से संबंधित सारे कानून वापस लेने होंगे। आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट यानी अफस्पा को असाधारण परिस्थितियों से निपटने के लिए 20 साल पहले लागू किया गया था, लेकिन वह अभी भी लागू है। अगर सरकार इसे वापस ले लेती तो यह एक तरफ कश्मीरियों को तसल्ली देता और सेना को भी ज्यादा जिम्मेदार बनाता।
कश्मीर में महाराजा हरि सिंह से छुटकारा पाने के लिए नेशनल कांफे्रंस ने लंबी लड़ाई लड़ी थी। तब राज्य को सेक्युलर और लोकतांत्रिक शासन देने के लिए उसके पास शेख अब्दुल्ला जैसी शख्सियत थे, लेकिन नई दिल्ली से निकटता के कारण उनके दल को विधानसभा चुनावों में पराजय का सामना करना पड़ा। बीते चुनाव में पीडीपी इसलिए जीती कि इसके संस्थापक मुफ्ती मोहम्मद सईद ने नई दिल्ली को बिना पराया बनाए उससे दूरी कायम रखी। कश्मीरियों ने पीडीपी को इसलिए भी वोट दिया था, क्योंकि उसने उन्हें पहचान की एक भावना दी। उमर और फारूख अब्दुल्ला को भी नेशनल कांफे्रंस के नई दिल्ली समर्थक होने की छवि की कीमत चुकानी पड़ी। भारत के साथ कश्मीर का संबंध इतना करीबी है कि उसे एक सीमा से ज्यादा चुनौती नहीं दी जा सकती। यह भी सच है कि थोड़ा सा भी विरोध क्यों न हो वह कश्मीरियों को अप्रत्यक्ष संतुष्टि देता है।
भारत विभाजन के समय लार्ड सिरिल रेडक्लिफ ने कश्मीर को कोई महत्व नहीं दिया था। वह लंदन में एक जज थे जिन्होंने भारत और पाकिस्तान को अलग देश बनाने के लिए विभाजन की रेखा खींची। उन्होंने कई साल बाद मुझे दिए गए इंटरव्यू में कहा था कि उन्होंने कल्पना नहीं की थी कि कश्मीर इतना महत्वपूर्ण हो जाएगा जैसा वह अभी हो गया है। मैंने इसकी चर्चा कुछ साल पहले श्रीनगर में की थी जब मैं वहां एक उर्दू पत्रिका की पहली वर्षगांठ की अध्यक्षता कर रहा था। बिना किसी औपचारिकता के उर्दू को सभी राज्यों से बाहर कर दिया गया जिसमें पंजाब भी शामिल है, जहां कुछ साल पहले वह एक मुख्य भाषा थी। वास्तव में पाकिस्तान में उर्दू को राष्ट्रभाषा बनाने के तुरंत बाद इस भाषा ने भारत में अपना महत्व खो दिया। कश्मीरी उर्दू भाषा के प्रति नई दिल्ली के सौतेले व्यवहार को भी महसूस करते हैं। आमतौर पर यही माना जाता है कि उर्दू उपेक्षा की शिकार इसलिए है, क्योंकि इसे मुसलमानों की भाषा समझा जाता है। अगर नई दिल्ली उर्दू को अपना माने और प्रोत्साहित करे तो कश्मीरियों की नाराजगी का कम से कम एक कारण तो कम हो जाएगा।
सामान्य अवस्था में होना मन की एक स्थिति है। कश्मीरियों को यह महसूस करना चाहिए कि उनकी पहचान खतरे में नहीं है और नई दिल्ली इसका महत्व समझे कि कश्मीरियों की क्या इच्छा है? नई दिल्ली को यह समझना है कि भारत से दूर होने की कश्मीरियों की इच्छा को नई दिल्ली से श्रीनगर को किसी तरह का सार्थक सत्ता हस्तांतरण न समझा जाए, लेकिन फिर भी कश्मीरी अपना शासन खुद चला रहे हैं, ऐसी धारण किसी भी कीमत पर बनाए रखनी है।
[ लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं ]