जब भाखरा बांध बनाने के लिए 1948 में विस्थापित किए सैकड़ों लोगों को अब तक पुनर्वासित नहीं किया गया है और नर्मदा नदी पर बनाए गए कई बांधों के निर्माण के लिए हटाए गए हजारों लोग अपने जायज बकाए के लिए संघर्ष कर रहे हैं, तब ग्रामीण भारत के लिए सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण की नवीनतम रिपोर्ट ने बढ़ती भूमिहीनता की आर्थिक संवेदनशीलता को सामने लाने का काम किया है। इस रिपोर्ट के अनुसार, 51 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास कोई जमीन नहीं है। उनके पास इसके सिवा कोई विकल्प नहीं है कि वे अपने जीवनयापन के लिए मानव श्रम पर निर्भर रहें। इसलिए भूमि अध्यादेश को वापस लेने और संप्रग सरकार के 2013 के भूमि बिल को फिर से लागू करने को कुछ अर्थशास्त्री महत्वपूर्ण आर्थिक सुधारों से पीछे हटने के रूप में देख रहे हैं, पर असलियत यह है कि किसान समुदाय के लिए यह बड़ी राहत की बात है।

इसे लोकतंत्र की जीत या जनता की विजय चाहे जो कहें, भूमि विधेयक पर कदम पीछे खींचना सिर्फ अस्थायी राहत है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहते हुए अपना सुर मधुर कर लिया है कि सरकार किसी भी संस्था, राजनीतिक दल या किसान से अच्छे सुझावों को सुनने के लिए हर वक्त इच्छुक थी, लेकिन सच्चाई यह है कि काफी विरोध के बावजूद सरकार तीन बार जल्दी-जल्दी अध्यादेश लाई। अब प्रधानमंत्री चाहे जो कहें, सरकार भूमि बिल में उन संशोधनों से पीछे हटने को जरा भी इच्छुक नहीं थी जो पिछले दिसंबर में पहले अध्यादेश में राजग सरकार ने प्रस्तावित किए थे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले खुद कहा था कि संप्रग का 2013 का भूमि विधेयक जल्दबाजी में पारित किया गया। उन्होंने एक 'मन की बात' कार्यक्रम में विस्तार से बताया था कि उनकी सरकार जो नया विधेयक लाना चाह रही है, वह कैसे विकास के मार्ग के अवरोधों को दूर करेगा और इस प्रक्रिया में किस तरह किसानों के बीच खुशहाली आएगी। वित्तमंत्री अरुण जेटली, सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी, शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू और पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर समेत उनके तमाम सहयोगी भी उनके सुर में सुर मिला रहे थे। दांव इतना बड़ा था कि अरुण जेटली ने इस विधेयक को पारित करने के लिए संसद का संयुक्त सत्र बुलाने की संभावना तक का संकेत दिया था। अब इस रुख से पूरी तरह पलटते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मन की बात कार्यक्रम में बताया कि 2013 का संप्रग सरकार का बिल किस तरह किसानों के हित में है।

भूमि बिल पर यू-टर्न लेने का कारण हृदय परिवर्तन नहीं, बल्कि राजनीतिक आवश्यकता है। यह देखते हुए कि राज्यसभा में संख्या बल उनके पक्ष में नहीं है और कुछ राज्यों के नेताओं से राजनीतिक रिश्ता बढ़ाना भूमि विधेयक के लिए समर्थन का संकेत नहीं है, सरकार के सामने विवादास्पद संशोधनों की वापसी के अलावा कोई चारा नहीं बचा था। कुछ लोग इसे लोकतांत्रिक विजय बता रहे हैं लेकिन यह सिर्फ इसलिए हुई है कि राजग के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं था। अगर राज्यसभा में संख्या उसके पक्ष में होती तो मुझे यकीन है कि अध्यादेश को कानून बनाने के भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच के विरोध को दरकिनार कर दिया जाता। यह एक तरह से बुराई से भलाई निकली है। इसे किसान विरोधी विधेयक के रूप में जाना जा रहा था और यह आसन्न बिहार चुनावों में पार्टी की किस्मत को प्रभावित जरूर करता। 2017 के उत्तर प्रदेश और पंजाब चुनावों में भी यह पार्टी को महंगा पड़ सकता था। ग्रामीण क्षेत्रों में गुस्से का जो तीव्र ज्वर है, उसके बारे में पार्टी नेतृत्व ने शायद ठीक से आकलन नहीं किया है। चुनावों के वक्त नरेंद्र मोदी ने 50 प्रतिशत बेहतर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का वादा किया था, इसे देने से राजग सरकार ने मना कर दिया और ऊपर से कहीं की भी जमीन कभी भी छीन लिए जाने का भय लोगों में पैदा कर दिया था। भूमि अधिग्रहण पर अध्यादेशों को जारी करने के बाद गर्मागर्म बहसों के दौरान जिस बात पर ध्यान नहीं दिया गया वह यह है कि भूमि चाहे कितनी भी कम हो, अधिकांश लोगों के लिए एकमात्र आर्थिक सुरक्षा है। वैसे भी, जमीन कई पीढिय़ों तक चलने वाला लाभ है जिसका आर्थिक पक्ष कभी भी मापा नहीं जा सकता। इसलिए एकमात्र आर्थिक सुरक्षा से लोगों को वंचित करना उनकी आर्थिक असुरक्षा को बढ़ाने वाला है। इससे वर्तमान पीढ़ी के साथ-साथ आने वाली पाढिय़ां भी प्रभावित होंगी।

देश की भूमि के 47 प्रतिशत हिस्से पर सिर्फ सात प्रतिशत भारतीयों का स्वामित्व है। इसका मतलब है कि भूमि संसाधनों के शेष 53 प्रतिशत हिस्से पर 93 प्रतिशत आबादी किसी तरह अपना पैर टिकाए हुए है। यह कहना कि भूमि की उपलब्धता विकास के रास्ते में आड़े आ रही है, अधिक से अधिक जमीन हड़पने की चाल के सिवा कुछ नहीं है। मैंने सुना है कि चार लाख करोड़ रुपये मूल्य की परियोजनाएं जमीन के कारण रुकी पड़ी हैं। यह सच नहीं है। आर्थिक सर्वेक्षण 2015 के अनुसार, सिर्फ 8 प्रतिशत परियोजनाएं जमीन की वजह से रुकी हुई हैं। रिपोर्ट बताती है कि परियोजनाएं बाजार की नकारात्मक स्थितियों और निवेशकों की रुचि में कमी के कारण रुकी पड़ी हैं।

कई सर्वेक्षणों ने बताया है कि सिर्फ पांच राज्यों में अधिग्रहीत 45 प्रतिशत जमीन का अब तक उपयोग किया गया है। विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) के मामलों में भी सिर्फ 62 फीसद अधिग्रहीत जमीन का उपयोग किया गया है। सीएजी की एक रिपोर्ट बताती है कि सरकार द्वारा लोगों से अधिग्रहीत की जाने वाली जमीन ग्रामीण आबादी से पूंजीपतियों को धन का प्रमुख हस्तांतरण साबित हो रही है। वहन करने योग्य आवास एक दूसरा तर्क है जो शहरी मध्य वर्ग को भाता है। लेकिन यह तथ्य अपनी जगह है कि देश को फिलहाल 1.8 करोड़ घरों की जरूरत है। 1.2 करोड़ घर-फ्लैट अब भी खाली पड़े हैं। ये घर खाली पड़े हंै क्योंकि इनकी कीमत उन लोगों की पहुंच से दूर है जो इसे ले सकते हैं।

चुनौती मुख्यधारा के अर्थशास्त्रियों और उद्योग लॉबी वाले संगठनों के डराने-धमकाने वाले तरीकों के सामने गलत ढंग से झुक जाना नहीं है। सरकार का यू-टर्न लेना वापसी या हार का संकेत नहीं है, यह तो राजनीतिक परिपक्वता का संकेत है। नरेंद्र मोदी को इस परिपक्वता का इस्तेमाल विकास को गांवों की तरफ ले जाने में करना चाहिए जिससे 70 फीसद आबादी सीधे-सीधे लाभान्वित होगी। यही सबका साथ सबका विकास सुनिश्चित करने का रास्ता है।

[लेखक देविंदर शर्मा, कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं]