राजनीति में नया रुझान
[जनाधार के मामले में कांग्रेस और भाजपा की घटती हिस्सेदारी को एक महत्वपूर्ण बदलाव के रूप में देख रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश]
दो प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों-कांग्रेस और भाजपा को विधानसभा चुनावों में मतदाताओं ने कड़वी घुट्टी पिला दी। चुनाव आयोग ने भाजपा, माकपा, भाकपा, बसपा और कांग्रेस को राष्ट्रीय दलों के रूप में वर्गीकृत किया हुआ है। इन दलों ने चार राज्यों में न्यूनतम वोट हासिल किए हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय दलों ने कुल मतों का 63.58 फीसदी हासिल किया था। 2007 के विधानसभा चुनावों में उत्तार प्रदेश में राष्ट्रीय दलों का वोट प्रतिशत 56.50 फीसदी था। 2012 में यह करीब तीन फीसदी कम हो गया है। यह आंकड़ा भी बेहतर इसलिए लगता है, क्योंकि बसपा भी राष्ट्रीय पार्टियों की श्रेणी में आती है। अगर बसपा राष्ट्रीय दल में शामिल न होती तो राष्ट्रीय दलों की हिस्सेदारी महज 28 फीसदी रहती। इसी प्रकार, 2007 की तुलना में पंजाब में 2012 के विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय दलों की हिस्सेदारी दो फीसदी घट गई है।
उत्तार प्रदेश के नतीजों के विस्तृत विश्लेषण से निष्कर्ष निकलता है कि अधिकांश सीटों पर कांग्रेस और भाजपा तीसरे-चौथे स्थान पर रही। जिन 403 विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव हुआ उनमें से केवल 11 सीटों-मथुरा, बिलासपुर, गोविंदनगर, तमुखी राज, सौर, वाराणसी कैंट, वाराणसी दक्षिण, किदवई नगर, लखनऊ कैंट, फरेंदा और सहारनपुर नगर में ही इन दोनों पार्टियों के बीच सीधी टक्कर रही। अन्य सभी स्थानों पर लड़ाई मुख्यत: सपा और बसपा के बीच हुई। इससे दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दल संकट में घिर गए हैं। इन दलों के करीब 60 फीसदी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। अनेक को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। उदाहरण के लिए बाह क्षेत्र में कुल पड़े 1.83 लाख वोटों में से कांग्रेस को केवल 2411 और भाजपा को 2131 वोट ही मिले। इसका मतलब यह है कि दोनों पार्टियां महज एक फीसदी से कुछ अधिक वोट ही हासिल कर पाईं। इस प्रकार के और भी बहुत से उदाहरण हैं। अलीगढ़ में कुल 1.96 लाख वोटों में से भाजपा एक प्रतिशत भी हासिल नहीं कर पाई। कांग्रेस का प्रदर्शन थोड़ा सा बेहतर रहा। उसे करीब चार फीसदी वोट मिले। अकबरपुर में कांग्रेस को महज चार फीसदी वोट मिले, जबकि भाजपा को दो फीसदी से भी कम। इस प्रकार के दर्जनों उदाहरण हैं, जिनसे पता चलता है कि ये दोनों दल इस चुनाव में किस कदर अप्रासंगिक हो गए। भाजपा अयोध्या में भी चुनाव हार गई। इस सीट पर भाजपा पिछले 20 वर्षो से काबिज थी। कुछ और पहलू हैं जो भाजपा और कांग्रेस, दोनों के लिए परेशानी का कारण बने हुए हैं। इन तथ्यों के आलोक में यह असंतोष और भी बढ़ जाता है। इस चुनाव में पहली बार वोट देने वालों की संख्या में बड़ा उछाल आया। महिलाओं ने भी बढ़-चढ़कर मतदान में हिस्सा लिया। अब पहले से अधिक शहरी सीटें हो गई हैं। यहां भी समाजवादी पार्टी ने इन दो पार्टियों के किले को ध्वस्त कर दिया।
2007 की तुलना में 2012 में उत्तार प्रदेश में 1.37 करोड़ मतदाताओं की संख्या बढ़ी। दूसरे, 2007 की तुलना में इस बार 2.39 करोड़ अधिक मतदाताओं ने वोट डाले। पंजाब और उत्तार प्रदेश में भी क्रमश: 11 और 3.8 लाख अधिक मतदाताओं ने वोट डाले। सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि पांचों राज्यों में महिला मतदाताओं की संख्या में दो से तीन प्रतिशत की वृद्धि हुई। सबसे अधिक अंतर गोवा में रहा। इन राज्यों में 79.67 प्रतिशत पुरुष मतदाताओं ने मतदान किया, जबकि महिलाओं के संबंध में यह आंकड़ा 85.97 फीसदी रहा। इसका यह मतलब है कि पहली बार वोट डालने वाले युवा वर्ग ने कांग्रेस और भाजपा को किसी लायक नहीं समझा। भाजपा के लिए राहत की बात यह रही कि गोवा और पंजाब में नए मतदाताओं ने उसे स्वीकार किया। इसी प्रकार कांग्रेस को सांत्वना पुरस्कार मणिपुर से मिला, किंतु ये छोटे प्रदेश विशाल उत्तार प्रदेश की क्षतिपूर्ति नहीं कर सकते।
2008 में विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों के परिसीमन से पहले विधानसभा और लोकसभा क्षेत्र के बीच विभाजन रेखा का कोई मतलब नहीं था। एक तरफ बाहरी दिल्ली जैसे क्षेत्र थे, जिनमें 15 लाख मतदाता थे और दूसरी तरफ चांदनी चौक में दो लाख से भी कम। हालांकि अब परिसीमन आयोग विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों का जनसंख्या के आधार पर काफी हद तक पुनर्निर्धारण कर चुका है। पिछले तीस वर्षो के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों से बड़ी संख्या में लोगों ने शहरों में पलायन किया है। इसलिए शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में आबादी और निर्वाचन क्षेत्रों का अनुपात गड़बड़ा गया था। अब चूंकि निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्निर्धारण आबादी के अनुपात में हो चुका है, इसलिए शहरी क्षेत्रों में विधानसभा और लोकसभा, दोनों क्षेत्रों में बढ़ोतरी हुई है। परिसीमन के पुनर्निर्धारण के बाद जब शहरी क्षेत्रों में निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या बढ़ गई तो पहले पहल यही लगा कि शहरों में मजबूत जनाधार वाली भाजपा को इसका सबसे अधिक लाभ मिलेगा। राहुल गांधी के राजनीतिक क्षितिज पर उभरने के कारण कांग्रेस भी खुश दिखी। उसने सोचा कि राहुल की छवि के सहारे वह शहरी क्षेत्रों में बेहतर प्रदर्शन कर पाएगी। इसलिए वह आश्वस्त थी कि शहरों में निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या बढ़ने से उसके प्रदर्शन में सुधार होगा, किंतु कांग्रेस और भाजपा उस खतरे को नहीं भांप पाए जो सपा व बसपा जैसी क्षेत्रीय और जाति आधारित पार्टियां शहरी क्षेत्रों में खड़ा कर रही थीं। 2012 के चुनाव में सब बदल गया। दोनों पार्टियों के लिए बड़ा झटका यह है कि सपा शहरों में पैठ जमा चुकी है। उदाहरण के लिए, लखनऊ में सपा ने पांच में से तीन क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन किया।
अंत में सत्ता विरोधी रुझान पर विचार करें। जब भी किसी प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर की बात चलती है तो हर कोई मान लेता है कि यह लहर प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ है। वे यह भूल जाते हैं कि यह केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के भी खिलाफ है। पांच राज्यों के इन चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने गोवा और मणिपुर में सत्ता बचाने और उत्तार प्रदेश, उत्ताराखंड और पंजाब में दूसरे दलों से सत्ता छीनने के लिए चुनाव लड़ा। कांग्रेस के इन प्रयासों में मनमोहन सिंह सरकार की नकारात्मक छवि ने पलीता लगा दिया। पिछले 18 महीनों से संप्रग सरकार घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई है। इसलिए अन्य दलों द्वारा शासित राज्यों में कांग्रेस को सत्ता विरोधी रुझान का लाभ नहीं मिला, बल्कि वह खुद इस रुझान का शिकार बनी। जब विधानसभा चुनावों में यह हाल है तो अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का भगवान ही मालिक है!
[लेखक: वरिष्ठ स्तंभकार हैं]
मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर