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त्रासदी का विचित्र तमाशा

By Edited By: Published: Mon, 05 Mar 2012 12:46 AM (IST)Updated: Mon, 05 Mar 2012 12:54 AM (IST)
त्रासदी का विचित्र तमाशा

यह कटु लग सकता है, किंतु जिस तरह मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भयावह गुजरात दंगों की दसवीं वर्षगांठ को पीड़ितों के उत्सव में बदला है वह बेहद घृणित है। पीड़ितों को गले लगाने के लिए दिग्गज पत्रकार अहमदाबाद की दौड़ लगा रहे थे। दंगों में अपनी जान बख्शने की गुहार लगा रहे कुतुबुद्दीन अंसारी के दुर्भाग्यपूर्ण अति-प्रचारित फोटोग्राफ का दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से दोहन किया गया। यह हिंसा को इतिहास के कूड़ेदान में फेंकने का संकल्प लेने का एक उचित अवसर हो सकता था, किंतु इसके बजाय यह महज तमाशा बनकर रह गया। हंगामेदार टीवी वार्ताओं में इसका पटाक्षेप हो गया।

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घटनाओं के इस बदसूरत मोड़ के कारण स्पष्ट हैं। दस साल पहले गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस पर हुए जघन्य हमले से गुजरात में हिंसा भड़की। इस पूरे प्रकरण में 'न्याय' का राजनीतिक दोषारोपण में रूपातंरण हो गया। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस मुद्दे को जिंदा बनाए रखा। अब मुद्दा दंगाइयों और अमानवीय कृत्य के जिम्मेदार लोगों को दंडित करने का नहीं रह गया है, बल्कि एक व्यक्ति-मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राजनीतिक निशाना बनाना भर रह गया है। यह माना जा रहा है कि अगर मोदी पर व्यक्तिगत रूप से दंगों को बढ़ावा देने के आरोप में मामला दर्ज हो जाता है तो न्याय हासिल हो जाएगा। एक अतिरिक्त लाभ के रूप में मोदी राजनीतिक परिदृश्य से गायब भी हो जाएंगे। परिणामस्वरूप अगले लोकसभा चुनाव में उनके प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की संभावना भी खत्म हो जाएगी। संक्षेप में, अगर आप नरेंद्र मोदी को हरा नहीं सकते, तो उन्हें अयोग्य ठहरा दो।

अगर नरेंद्र मोदी राजनीतिक रूप से कमजोर हो जाते तो उनके खिलाफ न्यायिक संघर्ष भी दम तोड़ देता। 2002 या 2007 के चुनाव में अगर मोदी हार जाते तो उससे यह आत्मतुष्ट निष्कर्ष निकाल लिया जाता कि गुजरात ने भी उसी तरह प्रायश्चित कर लिया जिस तरह उत्तर प्रदेश ने अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद भारतीय जनता पार्टी को नकारकर किया था। एक्टिविस्टों का शिकंजा इसलिए कसता चला गया, क्योंकि इस बीच मोदी बराबर खुद को मजबूत करते चले गए और कांग्रेस एक प्रभावी चुनौती खड़ी करने की स्थिति में भी नहीं रही। परिणामस्वरूप, मोदी से निपटने का एकमात्र रास्ता यह रह गया कि उन्हें राजनीति से ही किनारे कर दिया जाए।

एक और पहलू गौरतलब है। पिछले दस वर्षो में नरेंद्र मोदी ने गुजरात का कायापलट कर दिया है। 2002 में सांप्रदायिक माहौल में चुनाव जीतने के बाद उन्होंने अपना ध्यान गुजरात के तीव्र विकास पर केंद्रित किया। गुजरात हमेशा से ही आर्थिक रूप से सशक्त राज्य रहा है और उद्यमिता तो जैसे गुजरातियों के डीएनए में समाई हुई है। मोदी के प्रयासों से गुजरात की विकास दर दहाई में प्रवेश कर गई। उन्होंने प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त किया, राज्य की राजकोषीय स्थिति को सुधारा, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया और सरकारी योजनाओं को ईमानदारी से चलाया। मोदी एक आदर्श प्रशासक हैं, जो कम से कम खर्च में प्रभावी शासन का मंत्र जानते हैं। 2007 में उनकी चुनावी जीत हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का परिणाम नहीं थी। इस जीत का श्रेय उनके सुशासन को जाता है। दूसरे, मोदी ने मुद्दे को सफलतापूर्वक हिंदू गौरव से गुजराती गौरव में बदल दिया। पिछले एक दशक में गुजरातियों के जनमानस में बड़ा बदलाव आया है। दरअसल, 1969 के दंगे के बाद से गुजरात एक दंगा संभाव्य राज्य बन गया था। 1969 के दंगे के बाद, 1971, 1972 और 1973 में गुजरात में भीषण दंगे हुए। इसके बाद लंबे अंतराल के बाद जनवरी 1982, मार्च 1984, मार्च से जुलाई 1985, जनवरी 1986, मार्च 1986, जनवरी 1987, अप्रैल 1990, अक्टूबर 1990, नवंबर 1990, दिसंबर 1990, जनवरी 1991, मार्च 1991, अप्रैल 1991, जनवरी 1992, जुलाई 1992, दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 में दंगे हुए। इस दौरान गुजरात क‌र्फ्यू, सामाजिक असुरक्षा और हिंदू-मुस्लिम समुदायों में घृणा का साक्षी रहा। दंगों का यह सिलसिला पूरे गुजरात में चलता रहा। 1993 में सूरत में भीषण दंगे हुए थे।

मार्च 2002 के बाद से गुजरात में कोई दंगा नहीं हुआ है। वहां क‌र्फ्यू अतीत की बात बन गया है। इस असाधारण रूपांतरण का क्या कारण है? मोदी में बुराई ढूंढने वाले सेक्युलरिस्ट बिना सोचे-समझे इसका सतही जवाब यह देते हैं कि 2002 के दंगों के बाद गुजरात के मुसलमान इतने भयभीत हो गए हैं कि वे हिंदुओं के अत्याचारों का विरोध कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। इस प्रकार की व्याख्या से तो यही लगता है कि दंगे मुस्लिम समुदाय के एक वर्ग द्वारा शुरू किए जाते थे। इसका सही कारण यह है कि गुजरात में पिछले एक दशक में बड़े आर्थिक और प्रशासकीय बदलाव हुए हैं। पहला बदलाव तो यह हुआ कि प्रशासकीय और राजनीतिक नेतृत्व, दोनों ने 2002 के दंगों में भड़की हिंसा से निपटने की अक्षमता से सबक लिया है। पुलिस को सत्तारूढ़ दल के छुटभैये नेताओं की दखलंदाजी से मुक्त करते हुए खुलकर काम करने का मौका दिया गया है। अवैध शराब व्यापार और माफिया पर शिकंजा कसा गया है। इसके अलावा एक अघोषित समझ यह भी विकसित हुई है कि राज्य एक और दंगे की राजनीतिक कीमत नहीं चुका पाएगा। इसीलिए, वहां हिंदू उग्रवाद पर अंकुश लगाने के लिए विशेष ध्यान दिया गया है।

गुजरात में सबसे बड़ा परिवर्तन सामाजिक स्तर पर आया है। आज गुजरात एक ऐसा समाज है जो पैसा बनाने और आर्थिक अवसरों का लाभ उठाने में लगा हुआ है। खुशनुमा वर्तमान और संभावनाओं से भरे भविष्य ने गुजरातियों के मन में भर दिया है कि दंगे धंधे के लिए सही नहीं हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि दोनों समुदायों के बीच अतीत की कटुता खत्म हो गई है और उसका स्थान सौहा‌र्द्र ने ले लिया है। अब भी सांप्रदायिक टकराव होते हैं, किंतु सांप्रदायिक टकराव और सांप्रदायिक हिंसा में फर्क होता है। अगर आर्थिक और राजनीतिक अंकुश रहे तो सांप्रदायिक टकराव हमेशा सांप्रदायिक हिंसा में नहीं बदलते। गुजरात के मुसलमानों को अब राजनीतिक वरदहस्त हासिल नहीं है, जो उन्हें कांग्रेस के राज में हासिल था, किंतु इसकी क्षतिपूर्ति समृद्धि के बढ़ते स्तर से हो गई है। 2002 के दंगे भयावह थे, किंतु अब इस पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि जनसंहार के बाद के दस सालों में गुजरात में अमनचैन कायम है और वह अभूतपूर्व विकास की राह पर अग्रसर है। उत्सव इसी बात का मनाया जाना चाहिए।

[स्वप्न दासगुप्ता: लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

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