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जीवन का रहस्य

By Edited By: Published: Sun, 01 May 2011 09:05 PM (IST)Updated: Wed, 16 Nov 2011 04:44 PM (IST)
जीवन का रहस्य

मृत्यु जीवन का शाश्वत सत्य है। इसे कैसे सुखद बनाया जा सकता है, जिससे भावी जीवन उन्नत व समृद्ध बन सके। दैवीय शक्तियां हमारे जीवन को उन्नत बनाने में सदा सहयोग करती है। अज्ञानवश मनुष्य स्वयं ही अपना पतन कर लेता है, जिसके लिए प्रकृति कतई जिम्मेदार नहीं है। मृत्यु के बाद एवं पुनर्जन्म के पूर्व जीवात्मा अपने कर्मो के अनुसार स्वर्ग-नरक की अनुभूति करता है। यह अंतराल का समय है, जहां जीवात्मा अपने स्थूल-शरीर को त्यागकर मन एवं वासनाओं सहित अपने कारण और सूक्ष्म शरीरों में विद्यमान रहता है। अंतराल के समय, जीवात्मा का न विकास होता है और न ही स्थूल-शरीर के अभाव में वह वासनापूर्ति कर सकता है, जिस कारण वह बड़ी वेदना अनुभव करता है। वह पुन: स्थूल शरीर धारण करने की इच्छा रखता है, किंतु विधान के अंतर्गत निश्चित अवधि के बाद ही उसे अपने कर्मानुसार स्थूल शरीर प्राप्त होता है। तब तक उसे अंतराल में भटकते रहना पड़ता है। विषयों के प्रति वासना का होना ही जन्म-मरण के चक्कर में डालता है। वासना ही कामनाओं की पूर्ति-आपूर्ति, राग-द्वेष और सुख-दुख के बंधन का कारण है।

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अतीत की सुखद-स्मृतियों के कारण स्वर्ग का और दुखद-स्मृतियों के कारण नरक का अहसास जीवात्मा को अंतराल के काल में होता है। स्वर्ग भी वासना है, अत: यह भी जीवात्मा की सर्वोपरि स्थिति नहीं है। स्वर्ग भी बंधन है। इससे ऊपर की स्थिति मुक्ति की है, जिसमें जीवन संपूर्ण भोगों एवं विषय वासनाओं से मुक्त होकर अपनी स्वतंत्र स्थिति का अनुभव करता है। यही आत्म-अनुभूति है, निजानंद है। इससे भी ऊपर की स्थिति भक्ति की है, जिसमें जीवात्मा पूर्ण समर्पण भाव से 'परम-आत्मा' के शरणागत होकर प्रभु-प्रेम का आनंद पाता है। प्रभु-प्रेम के अनंत, नित-नव रस का आस्वादन कर जीवात्मा कृतकृत्य हो जाता है। ऐसे उन्नत, विकसित जीवात्माओं का पुनर्जन्म ईश्वरीय कार्यो के लिए महान वैज्ञानिक, कलाकार, संत, समाज सुधारक आदि के रूप में समय-समय पर होता रहता है।

[मानव सेवा संघ]

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