भूमि बिल विरोध के सात कारण
लोकसभा में बहुमत के बूते सरकार ने भूमि अधिग्रहण विधेयक 2013 में संशोधनों को पारित करा लिया है। हालां
लोकसभा में बहुमत के बूते सरकार ने भूमि अधिग्रहण विधेयक 2013 में संशोधनों को पारित करा लिया है। हालांकि शिवसेना जैसे भाजपा के कुछ सहयोगियों ने इन संसोधनों का विरोध किया तो अकाली दल जैसे कुछ सहयोगी दल ऐन वक्त पर अनिच्छा से इसके समर्थन में मतदान पर राजी हुए। अब राज्यसभा में इस विधेयक को पारित कराना होगा जिसका सत्र 20 अप्रैल से शुरू होगा। देखना यह है कि मोदी सरकार उन्हीं संशोधनों पर जोर देती है जो लोकसभा में पारित हुए हैं या विपक्ष की मांगों को समायोजित करते हुए इसमें कुछ और संशोधन करती है। इस विधेयक की मियाद 5 अप्रैल तक है। स्पष्ट है कि कांग्रेस, सपा, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, डीएमके, जदयू, माकपा और भाकपा लोकसभा में पारित किए गए संशोधनों के खिलाफ हैं। ऊपरी सदन में इन्हीं दलों का बहुमत है। अन्नाद्रमुक और बीजू जनता दल के रुख का पता मतदान के समय ही चलेगा और यह इस पर निर्भर करेगा कि प्रधानमंत्री इन दो क्षेत्रीय दलों के सुप्रीमों पर कितना दबाव बना पाते हैं।
इस बीच जहां नितिन गडकरी इन संशोधनों के सबसे बड़े प्रवक्ता बने हुए हैं, वहीं प्रधानमंत्री ने खुद भी इन के पक्ष में मोर्चा संभाल लिया है। 21 मार्च को रेडियो पर प्रसारित मन की बात कार्यक्रम में उन्होंने झूठे दावे किए। उन्होंने कहा कि मुआवजा और पुनर्वास एवं पुनस्र्थापना के लाभ बढ़ाने के लिए 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करने जरूरी हो गए थे। हकीकत यह है कि 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून के अनुच्छेद 105 में यह स्पष्ट प्रावधान है कि चौथी अनुसूची में दर्ज मुआवजा और पुनर्वास एवं पुनस्र्थापना प्रावधानों के 13 कानूनों को 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों के अनुरूप बदला जाएगा। इन कानूनों के तहत राजमार्ग, रेलवे, कोयला और खनिज आदि उपक्रमों के लिए जमीन का अधिग्रहण किया जाता है। इसका यह मतलब है कि केंद्र सरकार को 31 दिसंबर 2015 तक पुनर्वास एवं पुनस्र्थापना कानूनों में परिवर्तन करना था। प्रधानमंत्री ने इस दिशा में कुछ नहीं किया और न ही उन्हें किसानों के हितों और चिंताओं की परवाह है। सच्चाई यह है कि 2013 के कानून में पुनर्वास और पुनस्र्थापना संबंधी कानून में बदलाव की बात कही गई थी और संसद में सर्वसम्मति से पारित इन प्रस्तावों का पालन करना केंद्र सरकार के लिए जरूरी था। सच्चाई यह है कि क्षतिपूर्ति, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापना कानूनों में बदलाव नहीं किया गया। सरकार ने 2013 के कानून में आमूल-चूल बदलाव करते हुए 1894 के प्रावधानों की पुनस्र्थापना कर दी है। अब कम से कम सात मोचरें पर भाजपा के खिलाफ मोर्चाबंदी तय है।
पहला मुद्दा है कि 2013 के कानून के अनुसार अधिग्रहण की अधिसूचना जारी करने से पहले छह माह के भीतर सरकार को अधिग्रहण के समाज पर पड़ने वाले प्रभाव की समीक्षा करनी थी ताकि प्रस्तावित अधिग्रहण में सार्वजनिक उद्देश्य स्पष्टता से स्थापित हो सकें। इसके अलावा 2013 के कानून में सार्वजनिक उद्देश्य के लिए किए गए अधिग्रहण में बाद में कोई बदलाव संभव नहीं था। वास्तविक जरूरत से अधिक भूमि किसानों को वापस करने का प्रावधान था। बहुफसली सिंचित भूमि का अधिग्रहण आखिरी उपाय के तौर पर किया जाना था तथा आजीविका खोने वालों के लिए मुआवजा निर्धारित किया जाना था। 2015 के संशोधनों में सामाजिक प्रभाव के आकलन को पूरी तरह से हटा लिया गया है। दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा है कि 2013 के कानून में निजी कंपनियों के लिए सरकार द्वारा किए जाने वाले अधिग्रहण की स्थिति में 80 प्रतिशत और पीपीपी मॉडल पर आधारित परियोजनाओं के लिए होने वाले अधिग्रहण में 70 प्रतिशत किसानों की सहमति की शर्त को 2015 में केंद्र सरकार द्वारा किए जाने वाले संशोधनों में हटा लिया गया है। तीसरा मुद्दा है कि 2013 के कानून में औद्योगिक गलियारों के लिए किए जाने वाले अधिग्रहण में केवल गलियारे के लिए भूमि अधिग्रहण करने का प्रावधान था जबकि 2015 के संशोधनों में गलियारे के दोनों तरफ एक-एक किलोमीटर जमीन अधिग्रहीत करने का प्रावधान है। जाहिर है कि यह जमीन बिल्डरों को दी जाएगी। यमुना एक्सप्रेस वे इसका जीता-जागता उदाहरण है कि इस प्रकार के अधिग्रहण से किस कदर विवाद खड़ा हो सकता है।
चौथा मोर्चा है कि 2013 के कानून में राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा परियोजनाओं के लिए अजर्ेंसी क्लॉज के तहत किसानों की सहमति और सामाजिक प्रभाव के आकलन के बिना ही जमीन अधिग्रहीत करने का प्रावधान था। 2015 के संशोधनों में इन प्रावधानों में कोई बदलाव नहीं किया गया, किंतु अन्य बदलावों के लिए इस प्रावधान को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। पांचवां मुद्दा यह है कि 2013 के कानून में बढ़े हुए मुआवजे और अतिरिक्त जमीन किसानों को वापस देने का प्रावधान है जिस पर 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने भी मुहर लगाई थी। 2015 के संशोधनों में इन फैसलों को नकार दिया गया है। इस प्रकार ये संशोधन उन लाखों किसानों का अहित करेंगे जिनकी जमीन 1894 कानून के तहत अधिग्रहीत की गई थी, किंतु जिसका कब्जा नहीं लिया गया था या फिर किसानों के खाते में मुआवजा नहीं आया था। विरोध का छठा कारण यह है कि अगर अधिग्रहीत भूमि का पांच साल तक उपयोग नहीं किया जाता तो यह जमीन या तो किसानों को वापस कर दी जाएगी या फिर राच्य के भूमि बैंक में शामिल कर ली जाएगी। 2015 के संशोधनों में इस प्रावधान को भी खत्म कर दिया गया है। 2015 के संशोधनों के अनुसार एक बार अधिग्रहीत की गई जमीन को तभी वापस किया जाएगा जब जमीन प्राप्त करने वाली इकाई स्वेच्छा से ऐसा करना चाहे। सातवां मुद्दा यह है कि 2013 का कानून विशिष्ट परिस्थितियों में ही सरकार या निजी कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण की अनुमति देता था जबकि 2015 के संशोधनों में किसी भी इकाई, संगठन, एनजीओ या फिर व्यक्ति के लिए जमीन का अधिग्रहण संभव कर दिया गया है।
2013 के कानून में औद्योगीकरण और शहरीकरण की जरूरतों के लिए भूमि अधिग्रहण तथा किसानों व आजीविका गंवाने वालों के हितों की रक्षा के बीच बेहतर संतुलन था। 2015 के संशोधनों में इस संतुलन को सरकार और निजी कंपनियों के पक्ष में कर दिया गया है। प्रस्तावित संशोधनों के बाद कंपनियों के निजी लाभ के लिए किसानों की जमीन के खरीद-फरोख्त का रास्ता खोल दिया गया है। इन संशोधनों के द्वारा सरकार किसानों के हितों की अनदेखी कर जमीन अधिग्रहीत कर पाएगी। यह डर कोई काल्पनिक नहीं है। देश में भूमि अधिग्रहण के नाम पर किसानों के साथ बड़ा अन्याय हुआ है। 2013 के कानून में इस अन्याय से किसानों को मुक्ति दिलाई गई थी। 2015 के संशोधन हमें वापस वहीं ले आए हैं जहां से हम चले थे।
[लेखक जयराम रमेश, पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं]