वासंती मन का उत्सव
वसंत में मस्ती का आलम पूरी फिजा में होता है। होली उसी का चरमोत्कर्ष है। होली में रंग एक-दूसरे में सम
वसंत में मस्ती का आलम पूरी फिजा में होता है। होली उसी का चरमोत्कर्ष है। होली में रंग एक-दूसरे में समा जाते हैं। हर कोई एक-दूसरे में मिल जाता है। यह अपनी निजता को बचाते हुए अहंकार का विसर्जन है। निजता अहमन्यता से अलग है। अहम् का सबसे बड़ा दुर्गुण यही है कि उसमें आत्म नहीं होता। उसमें खुद का बोझ होता है। जिनमें जीने का आनंद है वे ही वसंतजीवी हैं। वसंत एक भावना है और यही भावना होली को रंगों का उत्सव बनाती है। होली में कुछ ऐसा विशेष है जो भिन्नता वाले हमारे समाज को एक सूत्र में पिरो देता है। हमारी संस्कृति और समाज को ऐसे ही कुछ और दिनों की आवश्यकता है। यह केवल एक दिन ही नहीं होना चाहिए कि सारे भेदभाव मिट जाएं। भेद किसी समाज को आगे नहीं ले जा सकते।
वसंत और होली के उल्लास के बीच कुछ चिंता समाज की भी की जानी चाहिए और यह चिंता किसी और से ज्यादा हमें खुद करनी चाहिए। समाज एकजुट और खुशहाल होगा तो रंगों का उत्सव और अधिक चमकेगा। खुशहाली की राह एक-दूसरे की चिंता करने से निकलेगी। किसी को पीछे छोड़कर या उसे पराजित कर हम व्यक्तिगत खुशी तो हासिल कर सकते हैं, लेकिन इससे समाज में उस तरह की तरक्की नहीं होगी जैसी अपेक्षित है। असली तरक्की तब होगी जब हम सब साथ मिलकर चलेंगे। होली में इतनी शक्ति है कि वह जातियों व धमरें की सीमा रेखा को तोड़ सके। यह एक ऐसा पर्व है जिसमें सामूहिकता है-हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता। वसंत की आंखों में सरसों के फूल हैं। सरसों के पौधे की गंध है। वसंत की भंगिमा में ढोलक की थाप है। वसंत व होली में संगीत की लय स्वत: अनुभूत की जा सकती है।
होली में उल्लास, समरसता, आत्मीयता, एक दूसरे के प्रति प्रेम व लगाव-भावना ही केंद्रीय तत्व है। पृथ्वी से छलके हुए उल्लास को यदि कोई ऋतु अपनी आंखों में पीती है तो वह वसंत है। वसंत सपनों के साथ ठिठोली करने वाली ऋतु है। ऐसे वातावरण में जब सब कुछ विषाक्त या प्रदूषित होने लगा है, रंगों में पर्यावरण की अनुकूलता उचित है। साथ ही प्रेम संबंधों की पवित्रता से घृणा के वातावरण को बेहतर बनाना औचित्यपूर्ण है। होली खा-पीकर मस्त होने तक सीमित नहीं, अपितु संबंधों के परिष्कार का बेहतर सेतु है। वर्ष भर इस पर्व की हम प्रतीक्षा करते रहते हैं कि नव रस का आस्वाद करने का मौका मिले।
होली में एक अलग तरुणाई है, अमराई है, दखिनाई है। दखिनाई मतलब दखिनैया पवन की बहुरंगी मस्त चाल। घ्राणेंद्रियों में ईख के पत्ताों से भुने होरहे की गंध आत्मा में समा जाती है। यही होली की असली मस्ती है। गुझिया जैसी चीजें आधुनिकता की दौड़ में अपना रूप बदल रही हैं। केवल मदिरा को होली समझने की दुस्सह कठिनता पवरें-त्योहारों को बहुत सीमित बना देगी। होली किसान के लिए प्रकृति के साथ रंग व स्वाद का आनंद लेने का महत्वपूर्ण पर्व है। प्रकृति सुजला- सुफला, श्यामला है। जितना हम उससे लेते हैं उससे अधिक कृतज्ञतापूर्वक देना चाहिए। पर्व हमें दोहन से रोकते हैं। होली में पानी का उपयोग करें, न कि दुरुपयोग। ऐसे मौकों पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत के अनेक हिस्सों में आज भी पीने के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध नहीं है। बुंदेलखंड के तमाम किसानों को अपने घर-गांव से इसलिए पलायन करना पड़ा है, क्योंकि वहां पानी की बहुत किल्लत है। होली वगरें, जातियों, संप्रदायों और सभी तरह के विचारधाराओं के बाड़े तोड़ देती है। यही वह समय है जब रिश्तों की कड़वाहट घुल जाती है और एक-दूसरे के प्रति परस्पर प्रेम व मधुरता का भाव पैदा होता है।
होली वास्तव में एक उत्सवधर्मी वातावरण में प्रेमपूर्ण उन्माद है। यह भी कह सकते हैं कि साल भर प्रतीक्षा की जाती है कि बिगड़े संबंध होली में मीठे कर लिए जाएंगे और ऐसा होना भी चाहिए। यह हमारी संस्कृति की एक अनूठी विशेषता है, जो दुश्मनों को भी एक-दूसरे के करीब लाती है। होली लोगों को जोड़ती है और जीवन में नए रंग भरने का काम भी करती है। वास्तव में संबंधों की खूबसूरत ऊष्मा का नाम ही होली है। गरीब से गरीब आदमी भी इस त्योहार में अपने गिले-शिकवे भूल कर सबको गले लगाता है। चारो तरफ खिले हुए फूल, उन्मुक्त वातावरण, झूमती डालियां वसंत और होली को नई आभा देते हैं। दूर-दराज से लोग एक-दूसरे के घर-गांव मिलने आते हैं। महानगरों का ठसपन भी कुछ टूटता है। ढोल-मंजीरे, हारमोनियम की संगत के साथ होरी-गायन चलता रहता है।
वसंत अपने आप में सुंदरता का पूर्ण स्वरूप है। जहां प्रकृति के अंग-प्रत्यंग में उल्लास-उमंग हो, प्रीति के अकथ आख्यान हों, जहां संधि तत्व हों यानी जाड़े और गर्मी के बीच का समय, वहां इंद्रियों से परे के आस्वाद की तृप्ति होती है। होली मन और प्रकृति में व्याप्त तमाम गंदगियों को जला देती है। प्रेम और कोलाहल के बीच होली का अपना अलग महत्व है। लोगों के हृदय को जीतिए। कोई जोर-जबरदस्ती नहीं। ऋतु को वासंती आपका मन बनाता है। इसलिए मन को वासंती बनाइए।
[लेखक परिचय दास, वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी हैं]