विपक्ष के सौ दिन
अस्तित्व एकपक्षीय नहीं है। यहां प्रकाश है तो अंधकार भी है। रात के साथ दिन भी है। प्रत्येक वाद का प्रतिवाद है। वाद-प्रतिवाद का सार संवाद है और संवाद लोकतंत्र की आत्मा है। पक्ष-विपक्ष के वाद-प्रतिवाद लोकतंत्र की जीवन ऊर्जा हैं। आईवर जेनिंग्स ने 'कैबिनेट गवर्नमेंट' में ठीक लिखा है कि विपक्ष नहीं तो लोकतंत्र नहीं। संसदीय लोकतंत्र का अपरिहार्य घटक है विपक्ष। पंडित नेहरू ने सशक्त विरोधी पक्ष को अनिवार्य बताया था कि उसे न केवल प्रभावी ढंग से अपने विचार व्यक्त करने होते हैं, बल्कि सरकार और विपक्ष के मध्य सहयोग भी आवश्यक होता है। सत्ता जनादेश से मिलती है। विपक्ष का दायित्व भी जनता ही सौंपती है। ब्रिटेन में विपक्ष को प्रतीक्षारत सरकार कहा जाता है। ताजा जनादेश ने नरेंद्र मोदी को सत्ता सौंपी है। सरकार ने सौ दिन पूरे किए। राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रों में उत्साह है। प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं में पहली बार सांस्कृतिक भारत भी मौजूद था। राष्ट्रीय स्वाभिमान का सेंसेक्स आसमान में है। अर्थव्यवस्था पंख फैलाकर उड़ी है। प्रशासन तंत्र रूपांतरित हो गया। जनगणमन में उल्लास है। सरकार के सौ दिनों की खासी चर्चा है पर विपक्ष के सौ दिन का मूल्यांकन भी जरूरी है। जिज्ञासा है कि इन्हीं सौ दिनों में जनतंत्र, राष्ट्रभाव, आंतरिक सुरक्षा, सुशासन, अर्थव्यवस्था, गरीबी निवारण या संसदीय कामकाज के क्षेत्र में विपक्ष का योगदान क्या है?
मोदी सरकार की उपलब्धियां सुस्पष्ट हैं। कुछेक सरकार ने बताई हैं, ढेर सारी जिम्मेदार समाचार माध्यमों ने। पहले सरकार नाम की वस्तु सिरे से गायब थी, अब काम करती सरकार है लेकिन जिम्मेदार विपक्ष का अता-पता नहीं। कांग्रेस से उम्मीदें थीं पर उसने अपनी सारी ताकत विपक्ष का नेता पद पाने में ही झोंक दी। बजट सरकारी अर्थ संकल्प होता है। प्रतिपक्ष ने आय व्यय पर तथ्यात्मक विचार नहीं रखे। पी. चिदंबरम जिस राजकोषीय घाटे का उल्लेख करते नहीं अघाते थे, विपक्ष ने उस पर भी कोई ठोस सुझाव नहीं दिए। रेल किराया वृद्धि पुरानी सरकार का ही प्रस्ताव था, लेकिन कांग्रेस ने विरोध किया। कांग्रेस ने मोदी सरकार पर अपनी योजनाओं का श्रेय लेने का आरोप लगाया। अगर ऐसा है तो कांग्रेस को प्रसन्न होना चाहिए। विपक्ष में बैठने का अर्थ विरोध के लिए ही विरोध नहीं होता। कांग्रेस ने मोदी सरकार के सौ दिन निराशापूर्ण बताए हैं। स्थिति ठीक उल्टी है। राष्ट्र में आशावाद बढ़ा है। कांग्रेस बेशक निराश है। विपक्ष ने सार्थक भूमिका का निर्वाह नहीं किया। संपूर्ण विपक्ष को भी सरकार की तर्ज पर अपना सौ दिन का रिपोर्ट कार्ड पेश करना चाहिए।
महंगाई संप्रग सरकार की ही विरासत है। संप्रग सरकार के दस बरस महंगाई बढ़ाऊ नीतियों में गए। नई सरकार ने महंगाई रोकने के ईमानदार प्रयास किए। महंगाई की बढ़त रुकी है, लेकिन सदन बाधित किया गया। काले धन की जांच के लिए केंद्र ने विशेष जांच समिति बनाई। विपक्ष को स्वागत करना चाहिए था। सुझाव भी देने चाहिए। कांग्रेस ने कालेधन की वापसी के सरकारी आश्वासन को ही छलावा बताया है। कांग्रेस को बताना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद संप्रग सरकार ने जांच समिति क्यों नहीं गठित की? क्या कांग्रेस भी कालेधन वापसी के लिए कृत संकल्प है? कांग्रेस का आरोप दयनीय है कि नरेंद्र मोदी ने झूठे वायदे किए, सपने बेचे, लेकिन राहुल गांधी ने ऐसा नहीं किया। क्या जनता ने मोदी की झूठी बातों पर विश्वास किया और राहुल गांधी की सही बातों को झूठ माना। जनविवेक पर ऐसा आरोप अशोभनीय है। सपा ने सौ दिनों में विपक्षी दल की क्या भूमिका निभाई? सपा ने केंद्र के विरुद्ध सतही बयानबाजी की। ध्वस्त बिजली व्यवस्था के लिए केंद्र पर आरोप लगाया। बसपा ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बढ़ती शक्ति को देश के लिए खतरा बताया। संघ अपने कार्यकर्ताओं के दम पर बढ़ा है। दक्षिण के दलों र्ने ंहदी प्रयोग के सामान्य सरकारी आदेश का भी कड़ा विरोध किया। बेशक वामदलों ने अपनी विचारधारा के अनुसार बजट पर टिप्पणियां कीं, लेकिन उत्तर प्रदेश के एक विधायक संगीत सोम की सुरक्षा के साधारण प्रश्न को कांग्रेस, जदयू आदि ने सांप्रदायिक बनाया। आदर्श विपक्ष की भूमिका ऐसी नहीं होती। फ्रांसीसी राजनीति विज्ञानी मौरिस दुवर्जर ने विपक्ष की तीन श्रेणियां बताई हैं। पहली- सिद्धांतहीन संघर्ष वाला विपक्ष, दूसरी महत्वहीन सिद्धांतों वाला और तीसरी विचारनिष्ठ सिद्धांतों के लिए संघर्ष करने वाला प्रतिपक्ष। संप्रति भारतीय विपक्ष इस क्रम में पहला है। सौ दिनों के आचार-व्यवहार ने विपक्ष को दीवालिया ही सिद्ध किया है - विचार में, व्यवहार में, बयानबाजी और संसदीय कामकाज में भी।
विपक्ष ने जनादेश को यथातथ्य स्वीकार नहीं किया। वह सदमें में है। विपक्षी दल अपनी संवैधानिक और जनतंत्रीय ड्यूटी पर नहीं लौटे हैं। उनकी कोई विचारधारा है नहीं। वैकल्पिक विचारों का अभाव है सो भाजपा राजग के विरुद्ध एकजुट होने की हड़बड़ी है। लालू-नीतीश मिल चुके हैं। आत्ममुग्ध भी हैं। ममता बनर्जी भी उसी रास्ते पर हैं, लेकिन वामदल लाल हैं। मुलायम सिंह ने भी यही संकेत दिए पर बहन माया तैयार नहीं। प्रश्न और भी हैं। क्या जनता दल का गैर कांग्रेसवाद खत्म हो गया? शरद यादव ने यही कहा है कि जद ने कांग्रेस के खिलाफ लंबी लड़ाई की है। अब गैरकांग्रेसवाद का दौर गया। कांग्रेस अब गैर नहीं अपनी ही है। प्रश्न है कि क्या कांग्रेस उत्तर प्रदेश में भी सपा और बसपा के साथ गैरभाजपावाद की खिचड़ी पकाने को तैयार है? क्या कर्नाटक के जनता दली चरित्र वाले नेता कांग्रेस से यारी करेंगे? क्या आंध्र, ओडिशा, हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में भी गैर भाजपावादी मोचरें की गुंजाइश है? मूलभूत प्रश्न है कि गैरभाजपाई गठजोड़ की दिशा क्या है? क्या गैरकांग्रेसवाद की तरह गैर भाजपावाद ही अब राजनीति की मौलिक आवश्यकता है?
विपक्ष की भूमिका के लिए गहन सैद्धांतिक प्रतिबद्धता चाहिए। अपने विचार के लिए जनसंपर्क और जनसंवाद चाहिए। टीवी बाइट या प्रेस विज्ञप्ति से ही विपक्षी कर्तव्य संभव नहीं। कांग्रेस स्वभाव से सत्तादल है। राजीव गांधी विपक्ष के नेता होकर भी विपक्षी भूमिका का निर्वहन नहीं कर पाए। तब वीपी सिंह प्रधानमंत्री थे। भाजपा की समर्थन वापसी के बाद सरकार गिर गई। 'विपक्ष' का काम सरकार को गलत काम के लिए टोकना है, फिर रोकना है और अंतत: विचार और सरकार का विकल्प देना भी है। यहां वैदिक काल से ही सभा समिति में विपरीत विचार का आदर है। कनाडा में 1905 और ऑस्ट्रेलिया में 1920 से ही विपक्षी मान्यता है। ब्रिटेन में 1937 में विपक्षी नेता को मान्यता मिली। भारत में पहली बार 1969 में विभाजित कांग्रेस के एक समूह को विपक्ष माना गया। डॉ. लोहिया, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, अटल, आडवाणी, इंद्रजीत गुप्त जैसे दिग्गजों ने विपक्ष की गरिमा को प्रतिष्ठा दी है, लेकिन आश्चर्य है कि सौ दिन की विपक्षी भूमिका में कोई भी कथन, आचार या व्यवहार लोकस्पर्शी नहीं दिखाई पड़ा।
[लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उप्र विधानपरिषद के सदस्य हैं]