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    शासन की कसौटी पर सौ दिन

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    Updated: Wed, 03 Sep 2014 05:27 AM (IST)

    मोदी सरकार के पहले सौ दिन एक अलग तरह की सरकार के उदय के गवाह बने हैं। ऐतिहासिक तुलनाएं खास महत्व नहीं रखती हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी की लोकतांत्रिक समझ चा‌र्ल्स डी गॉल की तरह है या उनके जैसे तमाम लोगों की तरह। जोनाथन फेनबी ने डी गॉल को प्रजातंत्रवादी राजा करार दिया था। यह मुहावरा किसी तरह के विरोधाभास को नहीं दर्शाता है। यह डी गॉल के लोकतांत्रिक रुझान और उनकी अद्भुत योग्यता के साथ-साथ कुछ अन्य विशिष्ट बातों को दर्शाता है जो एक मजबूत व्यक्तित्व के रूप में जनता से उनके जुड़ाव को बताता है। लोगों से जुड़ने के मामले में मोदी में भी कुछ ऐसी ही समानता है। यह इस धारणा को दर्शाता है कि सत्ता सीधे लोगों से आती है। ऐसा आत्मविश्वास केवल उन्हीं में हो सकता है जो अपने व्यक्तित्व का निर्माण खुद करते हैं। मोदी ने खुद को सबकी सहमति से जोड़ने का प्रयास किया। वह चाहते हैं कि देश के लोग कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ें। मोदी सरकार के पहले 100 दिनों की उल्लेखनीय उपलब्धि यही है कि वह एक ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में कार्य कर रहे हैं जिनके साथ लोगों की ताकत जुड़ी हुई है। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि यह एक ऐसी सरकार भी है जिसमें सत्ता के केंद्रीकरण और आधिपत्य के फंदे भी हैं। साधारण रूप से कहें तो इस समय सारी शक्तियां एक व्यक्ति में ही निहित नजर आ रही हैं।

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    जब कभी सत्ता इस तरह केंद्रीकृत हो जाती है तो प्रधानमंत्री किसी स्कूल के प्रधानाध्यापक की तरह कार्य करते नजर आ सकते हैं। वह नैतिक रूप से हर किसी को प्रेरित करने से लेकर शीर्ष स्तर तक अनुशासन कायम करने में जुटे हुए हैं। कुछ मामलों में प्रधानमंत्री ने यह काम बहुत ही होशियारी से किया है। स्वाधीनता दिवस के दिन स्वच्छता पर ध्यान केंद्रित करना एक अच्छा विचार था। यदि सचमुच ऐसा हो सका तो एक अच्छी बात होगी। प्राय: अन्य दूसरे नेता भी शौचालय अथवा सफाई की बात करते रहे हैं। हालांकि वह यह सब कभी एक पिता जैसे भाव से कहते रहे हैं तो कभी दुख व्यक्त करते हुए। यदि और कुछ नहीं तो मोदी की एक बड़ी उपलब्धि साफ-सफाई के विषय को राजनीति और प्रशासन की मुख्यधारा में लाना रही है। उन्होंने पूरी स्पष्टता, प्रतिबद्धता और एक चेतावनी वाले अंदाज में यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं किया कि कोई भी देश तब तक महान नहीं हो सकता जब तक कि वह अपनी कमियों और गंदगी को साफ नहीं करता। उन्होंने पहले ही कह रखा है कि भारत की मुख्य विफलता बाजार की विफलता अथवा राज्य की विफलता नहीं है, बल्कि यह सामाजिक विफलता है। यह विफलता तब और दुखद नजर आती है जब यह देश में लिंग आधारित हिंसा के तौर पर सामने आती है। प्रधानमंत्री ने यह बातें याद दिलाकर बहुत अच्छा काम किया। यह प्रजातंत्रवादी मजबूत शासन की ताकत ही है कि चीजें अथवा कार्य उसी दिशा में हो रहे हैं जैसा कि प्रधानमंत्री चाहते हैं, लेकिन खतरा भी यही है कि क्या काम केवल उसी दिशा में होंगे जिनमें प्रधानमंत्री रुचि लेंगे या ध्यान देंगे।

    आर्थिक दृष्टि से प्रधानमंत्री ने एक बेहतरीन और तर्कसंगत शुरुआत की है। उनका दृष्टिकोण बड़े-बड़े सुधारों के बजाय कई कदम दर कदम उपायों पर केंद्रित है। अर्थव्यवस्था को लेकर अब लोगों का नजरिया आशावादी है। सरकार के कुछ विभागों में अब ऊर्जा और उत्साह का माहौल देखा जा सकता है, विशेषकर बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में। सरकार ने लीक से हटकर कुछ क्रांतिकारी कदम उठाए हैं जिसे यदि क्रियान्वित किया जा सका तो बड़े बदलाव की संभावना है। इस संदर्भ में जन-धन योजना एक ऐसा ही प्रगतिशील कदम है, जिसके माध्यम से भारत में सभी परिवारों को बैंक खाता मुहैया कराया जा सकेगा। हालांकि सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि एक और लोन मेले के बजाय वित्ताीय समावेशन की योजना बने, जिसमें सभी को लाभ हो। सरकार का पहला बजट बहुत चमत्कारिक नहीं रहा, लेकिन इसने संकेत दिए कि सरकार बड़े आर्थिक सुधारों के लिए प्रतिबद्ध है और राजकोषीय घाटे को नियंत्रण से बाहर नहीं जाने देगी। महंगाई से लड़ने के लिए सरकार ने किसी नए कदम की घोषणा नहीं की है इसी तरह एक तथ्य यह भी है कि अभी तक नई कृषि रणनीति की भी घोषणा नहीं की गई है।

    सुशासन के मोर्चे की बात करें तो सरकार का अब तक का रिकार्ड मिला-जुला रहा है। जहां यह बात भरोसा पैदा करने वाली है कि लंबे अर्से बाद कोई प्रधानमंत्री अपने पद और अधिकारों के अनुरूप काम कर रहा है वहीं एक स्थिति यह भी है कि संस्थागत बदलावों की दिशा में अभी कोई पुख्ता संदेश सामने नहीं आए हैं। कुछ मामलों में संकेत चिंताजनक हैं। राज्यपालों की नियुक्ति का ट्रेंड वैसा ही है जैसा कि कांग्रेस ने किया। एक मंत्रालय जिसे लेकर चिंता है वह है पर्यावरण मंत्रालय। भारत में हवा जहरीली हो रही है, जल प्रदूषण बढ़ा है और पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ रहा है, लेकिन यह मंत्रालय पर्यावरणीय मानदंडों को कमजोर कर रहा है। यह दोहरे रूप में खतरनाक है। एक विश्वसनीय पर्यावरण ढांचा बनाने के बजाय सरकार शार्ट कट अपना रही है। इसे आगे अदालतों में चुनौती दी जा सकती है। कुछ ऐसा ही हाल मानव संसाधन मंत्रालय का है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक के बाद एक निरर्थक आदेशों के माध्यम से मानव संसाधन मंत्रालय कमांड और कंट्रोल के पुराने ढांचे की ओर लौटता नजर आ रहा है। आप यह महसूस कर सकते हैं कि यह सरकार सड़क, बिजली, बुनियादी ढांचे के रूप में शासन के हार्डवेयर पहलू के मामले में तो मजबूत है, लेकिन शिक्षा, संस्थानों के निर्माण और पर्यावरण जैसे शासन के साफ्टवेयर पहलुओं पर कमजोर है। भारत जिस एक सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती का सामना कर रहा है वह है बढ़ती सांप्रदायिकता। अधिक स्पष्ट रूप में उत्तार प्रदेश की समस्या समाजवादी पार्टी की देन है, लेकिन भाजपा भी इस राज्य के माहौल को सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत करने में पीछे नहीं है। प्रधानमंत्री बहुत सारे मामलों पर नैतिक जिम्मेदारी लेते हैं, लेकिन वह इस मामले में खामोश हैं।

    विदेश नीति के मोर्चे पर प्रधानमंत्री ने अच्छी शुरुआत की है, लेकिन यह कहना जल्दबाजी होगा कि जटिल अंतरराष्ट्रीय संबंधों को वह किस तरह संभालते हैं। दक्षिण एशिया की क्षेत्रीय एकता के संदर्भ में भारत की जिम्मेदारी के संदर्भ उनका प्रयास सराहनीय है। अपने आंतरिक हालात और पाकिस्तान सेना की वजह से पाकिस्तान किसी भी सरकार के लिए एक मुश्किल पहेली रहा है। इस कारण उसके लिए लाल रेखा खींचना खराब विचार नहीं है। कश्मीर के मसले पर भी मजबूत राजनीतिक पहल करनी होगी। दुर्भाग्य से कश्मीर की स्थिति भी चुनाव करीब आने के साथ ध्रुवीकरण का खतरा पैदा कर रही है। वर्तमान सरकार के पहले सौ दिन प्रजातांत्रिक शासन के समक्ष मौजूद संभावनाओं और जोखिम को दर्शाते हैं। एक तरफ जहां प्रधानमंत्री जोश से भरे हुए हैं और उनके पास पूरी अथॉरिटी है वहीं दूसरी तरफ सत्ता के केंद्रीकरण का जोखिम भी है, जो लंबे समय में बड़ी समस्याओं को जन्म देता है।

    [लेखक प्रताप भानु मेहता, सेंटर फार पालिसी रिसर्च के अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी हैं]