विलय खटाई में, अब गठबंधन पर दांव-पेंच
बिहार के चुनाव से पहले जनता परिवार का महाविलय खटाई में पडऩे से अब सीटों के तालमेल पर भी दांव-पेंच शुरू हो गया है। गठबंधन में अधिक से अधिक सीटें हासिल करने के लिए सत्ताधारी जदयू और राजद के बीच दबाव की राजनीति शुरू हो गई है।
पटना [सुभाष पांडेय]। बिहार के चुनाव से पहले जनता परिवार का महाविलय खटाई में पडऩे से अब सीटों के तालमेल पर भी दांव-पेंच शुरू हो गया है। गठबंधन में अधिक से अधिक सीटें हासिल करने के लिए सत्ताधारी जदयू और राजद के बीच दबाव की राजनीति शुरू हो गई है।
जनता परिवार के महाविलय पर सपा नेता रामगोपाल यादव के बयान से पहले दोनों दलों के नेताओं के बीच जो आपसी सहमति बनती दिखाई दे रही थी वह इस बयान के आने के साथ ही बिखरती दिखाई देने लगी है। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने गुरुवार को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को प्रोन्नति में आरक्षण का मामला जिस तरीके से उठाया वह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को नागवार लगा।
दलित और महादलित कार्ड तो वह खुद खेलते रहे हैं, ऐसे में इसे कोई और खेले ऐसा वह कभी नहीं चाहेंगे। यही वजह है कि उन्होंने तुरंत साफ कर दिया कि सरकार पटना हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत मेंं अपील करेगी और इसके लिए कानूनी सलाह ली जा रही है। यह मांझी के 'भूत' का ही असर है जो दोनों दल के नेता इसकी वकालत करने को मजबूर हैं। मांझी की घर वापसी का शिगूफा भी दबाव की राजनीति के तहत छोड़ा जा रहा है।
जानकारों का कहना है कि बड़े भाई और छोटे भाई में विवाद केवल सीटों की संख्या पर ही नहीं है। बड़े भाई गठबंधन में भी बड़ी भूमिका चाहते हैं। जबकि छोटे भाई के साथ संकट है कि गत विधानसभा चुनाव में उनके दल ने 115 सीटें जीती थीं। दस पांच सीटों की बात हो तो कोई बात नहीं, पर बड़े भाई की ओर से सवा सौ से अधिक सीटों पर दावा किया जा रहा है। डॉ. रघुवंश प्रसाद ने तो 145 सीटों पर दावा ठोंक दिया है। इसी खीझ में नीतीश कुमार ने भी कह दिया दावा के लिए तो 243 सीटें हैं।
गठबंधन में पेंच केवल सीटों की संख्या पर ही नहीं है। जदयू की कई सीटें हैं, जो राजद किसी कीमत पर छोडऩे को तैयार नहीं। नवादा, अतरी, कुर्था, जहानाबाद, राघोपुर, परसा जैसी दर्जन भर से ज्यादा ऐसी सीटें हैं, जो लालू प्रसाद किसी सूरत में नहीं छोडऩे वाले।
राजनीतिक हलके में चर्चा है कि दोनों दलों के तल्ख रिश्ते के पीछे कुछ और भी कारण हैं। इनमें एक है तबादलों में पर्याप्त हिस्सेदारी नहीं मिलना, खासकर अनुमंडलाधिकारियों की पोस्टिंग में। इसके अलावा बालू का ठेका भी एक बड़ा कारण है। चर्चा तो यह भी है कि तबादलों का दौर समाप्त होने के बाद रिश्तों में खटास और बढ़ेगी।