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    बोधिवृक्ष को तीन बार हुई नष्ट करने की कोशिश, जानिए पूरी कहानी

    By Kajal KumariEdited By:
    Updated: Wed, 10 May 2017 10:48 PM (IST)

    सारनाथ में अवस्थित बोधिवृक्ष का बौद्ध भिक्षुओं के लिए काफी महत्व है। इस वृक्ष के नीचे ही भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था, इसे तीन बार नष्ट करने की ...और पढ़ें

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    बोधिवृक्ष को तीन बार हुई नष्ट करने की कोशिश, जानिए पूरी कहानी

    पटना [जेएनएन]। बोधगया में बोधिवृक्ष के दर्शन करने हजारों लोग रोज आते हैं। यह वही वृक्ष है जिसके नीचे बैठकर गौतम बुद्ध को बोध यानी ज्ञान प्राप्त हुआ था। बौध धर्म को मानने वालों के लिए यह वृक्ष बहुत महत्व रखता है।

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    बुद्ध पूर्णिमा के दिन  दूर-दूर से बौध अनुयायी इस वृक्ष की पूजा करने आते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस पवित्र वृक्ष को भी तीन बार नष्ट करने का प्रयास किया गया। लेकिन तीनों बार यह प्रयास विफल हुआ। आज जो पेड़ सारनाथ में मौजूद है वह अपनी पीढ़ी का चौथा पेड़ है। 

    पहली कोशिश

    कहा जाता है कि बोधिवृक्ष को सम्राट अशोक की एक वैश्य रानी तिष्यरक्षिता ने चोरी-छुपे कटवा दिया था। यह बोधिवृक्ष को कटवाने का सबसे पहला प्रयास था। रानी ने यह काम उस वक्त किया जब सम्राट अशोक दूसरे प्रदेशों की यात्रा पर गए हुए थे।

    मान्यताओं के अनुसार रानी का यह प्रयास विफल साबित हुआ और बोधिवृक्ष नष्ट नहीं हुआ। कुछ ही सालों बाद बोधिवृक्ष की जड़ से एक नया वृक्ष उगकर आया, उसे दूसरी पीढ़ी का वृक्ष माना जाता है, जो तकरीबन 800 सालों तक रहा।

    गौरतलब है कि सम्राट अशोक ने अपने बेटे महेन्द्र और बेटी संघमित्रा को सबसे पहले बोधिवृक्ष की टहनियों को देकर श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार करने भेजा था। महेन्द्र और संघिमित्रा ने जो बोधिवृक्ष श्रीलंका के अनुराधापुरम में लगाया था वह आज भी मौजूद है।

    दूसरी कोशिश

    दूसरी बार इस पेड़ को बंगाल के राजा शशांक ने बोधिवृक्ष को जड़ से ही उखड़ने की ठानी। लेकिन वे इसमें असफल रहे। कहते हैं कि जब इसकी जड़ें नहीं निकली तो राजा शशांक ने बोधिवृक्ष को कटवा दिया और इसकी जड़ों में आग लगवा दी। लेकिन जड़ें पूरी तरह नष्ट नहीं हो पाईं। कुछ सालों बाद इसी जड़ से तीसरी पीढ़ी का बोधिवृक्ष निकला, जो तकरीबन 1250 साल तक मौजूद रहा।

    तीसरी बार 

    तीसरी बार बोधिवृक्ष साल 1876 प्राकृतिक आपदा के चलते नष्ट हो गया। उस समय लार्ड कानिंघम ने 1880 में श्रीलंका के अनुराधापुरम से बोधिवृक्ष की शाखा मांगवाकर इसे बोधगया में फिर से स्थापित कराया। यह इस पीढ़ी का चौथा बोधिवृक्ष है, जो आज तक मौजूद है।