विश्व जल दिवस पर विशेष: दुनिया को देते संदेश, खुदा मिटा रहे अपना परिवेश
पग-पग पोखरि माछ-मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान दरभंगा की पहचान रही है। यहां तालाबों की कमी नहीं थी। लेकिन आज अतिक्रमणकारियों के कारण इनकी पहचान मिटती जा रही है।
दरभंगा [जेएनएन]। पग-पग पोखरि माछ-मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान। ये पंक्तियां दरभंगा की पहचान रही है। मतलब यहां तालाबों की कमी नहीं रही है। वर्ष 1743 से 1760 के बीच तिरहुत सरकार के राजा नरेंद्र सिंह ने जल संरक्षण की पहल शुरू की थी।
दुनिया को फ्लड वाटर हार्वेसटिंग सिस्टम अर्थात बाढ़ संचय प्रणाली को धरातल पर उतार कर अकाल से बचने का उपाय बताया था। अब लोग भले ही उन्हें भूल गए हों, लेकिन जब भी जल संरक्षण की बात आती है तो इस उक्ति को नहीं भूल पाते हैं।
जल संरक्षण के क्षेत्र में मिथिला का अपना इतिहास
जल संरक्षण कीजिए, जल जीवन का सार। जल न रहे यदि जगत में, जीवन है बेकार। ऐसे स्लोगनों का प्रचार-प्रसार, सरकार व आम लोगों की ओर से काफी दिनों से जारी है। इसमें कितनी सफलता मिली या नहीं मिली, यह आंकने का कोई पैमाना नहीं है। वहीं दरभंगा राज के 14 वें महाराजा नरेंद्र सिंह ने न सिर्फ मिथिला, बल्कि पूरे देश दुनिया को जल संरक्षण का संदेश दिया था। अकाल पडऩे के बाद नदी के अतिरिक्त जल को तालाबों में संचय करने पर बल दिया।
यह भी पढ़ें: विश्व जल दिवस विशेष : पटना में तालाब तोड़ रहे दम, वाटर लेवल हो रहा कम
बांध के विरोधी माने जाने वाले राजा नरेंद्र सिंह के संदर्भ में कहा जाता है कि उन्होंने नदी को बांधने के बजाए पूरे तिरहुत राज्य में लाखों तालाबों का निर्माण कर नदी के अतिरिक्त जल का संचय किया। सिंचाई प्रणाली को विकसित किया। तालाब के चारों ओर की खेतों में उससे पटवन किया जाता था। जलसंचय वाली भूमि (चौर) में मछली पालन व धान की उपज साथ करने की समझ विकसित की।
कहते हैं कि राजा नरेंद्र सिंह के कार्यकाल में सबसे बड़ा अकाल पड़ा था। राज्य की हालत को देखते हुए राजा नरेंद्र ने ऐसी जल नीति तैयार की जो तिरहुत की पहचान बनी। वैसे तब और अब में काफी फर्क आ गया है। नदियों की धारा खत्म हो चुकी हैं। तालाबों पर भू-माफियों की नजर है। कई तालाबों के नेचर को बदल दिया गया है। छोटे के बाद अब उनकी नजरें बड़े तालाबों पर है। अगर यही स्थिति रही तो जलसंचय की योजना इतिहास हो जाएगी।
यह भी पढ़ें: जल संरक्षण: वक्त रहते संभल जायें, नहीं तो बूंद-बूंद के लिए तरसना पड़ेगा
तालाबों से दरभंगा की पहचान
दरभंगा की पहचान तालाबों से ही है। गांव की बातें तो दूर शहर में आज भी हराही, दिग्घी, गंगासागर, सुक्खी दिग्घी, आनंदबाग दिग्घी, मिर्जा खान तालाब, लक्ष्मीसागर, लालपोखर आदि कई तालाब मौजूद हैं। सभी का इतिहास सदियों पुराना है। राजा नरेंद्र सिंह ने छोटे-बड़े सैकड़ों तालाब की खुदाई कराई।
दरभंगा शहर में एक पंक्ति में तीन बड़े तालाब उनकी कीर्ति की गवाही देते हैं। क्षेत्रफल के मामले सबसे बड़ा दिग्घी तालाब है। इस तालाब में जाठ नहीं रहने के कारण कोई मांगलिक कार्य नहीं किया जाता है। सरकारी दस्तावेज में 112 बीघा 10 कटठा में फैले इस तालाब की लंबाई 24 सौ फीट व चौड़ाई 12 सौ फीट है।
मौजूदा स्थिति में अतिक्रमणकारियों ने इसके क्षेत्रफल को कम कर दिया है। इसके ठीक उत्तर हराही तालाब है। तीनों तालाबों में इसका क्षेत्रफल कम है। 62 बीघा 10 कटठा वाले इस तालाब की लंबाई 16 सौ फीट व चौड़ाई एक हजार फीट है। इस तालाब में भी पूरब व दक्षिण भाग में काफी दूर तक कब्जा कर लिया गया है। दिग्घी तालाब के ठीक दक्षिण दिशा में तीसरा गंगा सागर पोखर है। 78 बीघा 2 कटठा 10 धूर वाले इस तालाब की लंबाई व चौड़ाई दो-दो हजार फीट है। अतिक्रमणकारियों ने चारों ओर से इसे अपने कब्जे में ले रखा है।
यह भी पढ़ें: भोजपुर में जल संकट, संरक्षण को ले गैर जवाबदेही से बिगड़ रहे हालात
ऐतिहासिक तालाबों का नहीं हो सका सौंदर्यीकरण
शहर के प्रमुख तालाब हराही, दिग्घी और गंगासागर का सौंदर्यीकरण महाराज रुद्र ङ्क्षसह ने अपने कार्यकाल में किया था। 18 वीं सदी में भी इसका सौंदर्यीकरण रईस हाजी मोहम्मद वाहिद अली खान ने कराया था। इसके बाद कोई पहल नहीं की गई।
वर्ष 1974 में रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र ने तीनों तालाबों को भूमिगत कर पर्यटन स्थल बनाने की घोषणा की। लेकिन, आज तक सर्वे व डीपीआर बनाने से आगे तक का कोई कार्य नहीं किया गया। इस पर लाखों रुपये जरूर खर्च किए गए। वर्ष 1993 तत्कालीन डीएम अमित खरे ने इसके सौंदर्यीकरण का प्रयास किया। तबादले के कारण उनका सपना पूरा नहीं हो सका।
वजूद में नहीं हैं कई तालाब
शहर के कई ऐसे तालाब हैं जो आज की तारीख में भी सरकारी दस्तावेजों में मौजूद हैं। लेकिन, धरातल से उसका वजूद खत्म हो चुका है। बताया जाता है कि सरकारी अधिकारियों की लापरवाही व भूमाफियाओं के कारण ही ऐसा हुआ है।
शहर के चर्चित जेठयाही पोखर, कबराघाट, सुंदरपुर नासी, काजीपुर तालाब, दुमदुमा तालाब, दीवाने तकिया तालाब, भटवा पोखर, बल्लो पोखर, जलील पोखर, नाका छह स्थित बाबा सागर दास तालाब, दो गामी तालाब सहित कई छोटे-बड़े तालाबों को पाट दिया गया है। तीसरा गामी पोखर, बेला स्थित दिग्घी तालाब, राधा कृष्ण तालाब, मिल्लत कॉलेज स्थित तालाब, साह सुपन तालाब, मखनाही पोखर आदि को भरने की तैयारी चल रही है। इन तालाबों को काफी हद तक पाट भी दिया गया है। जो बचे हैं उनके के चारों ओर अतिक्रमण है।
यदि आप चाहें भी तो तालाब तक नहीं जा सकते हैं। संबंधित अतिक्रमणकारी अपने मनसूबे में दिन प्रतिदिन कामयाब हो रहे हैं। वजूद से लुप्त हो चुके तालाबों को अतिक्रमण से मुक्त कराने की कोई प्रशासनिक तैयारी नहीं है।
लक्ष्मीसागर मोहल्ला स्थित दुल्हन पोखर आज अतिक्रमण के कारण जंगल से भरा पड़ा है। बताया जाता है कि इस तालाब दरभंगा महारानी स्नान करने आती थी। हालांकि, तालाब बचाओ अभियान समिति, नदी वापसी अभियान समिति, जिला ग्राम स्वराज अभियान समिति आदि के कार्यकर्ता इसे बचाने के लिए रात दिन कार्य कर रहे हैं। लेकिन, कोई सुनने को तैयार नहीं हैं।
वर्ष 2015 में तत्कालीन नगर आयुक्त महेन्द्र कुमार ने भारत सरकार के आदेश पर अतिक्रमणकारियों के खिलाफ अभियान भी चलाया। हराही, दिग्घी व गंगासागर तालाबों की मापी कराकर अतिक्रमणकारियों को चिन्हित किया गया। 240 अतिक्रमणकारियों को भूमि खाली करने का नोटिस दिया गया। लेकिन, उनके तबादले के बाद अभियान अधर में लटक गया।
पहले और अब में काफी है अंतर
तालाबों की खुदाई व उसे नदी से जोडऩे की जगह लोग उसके अस्तित्व को ही खत्म करने में लग गए हैं। कभी यहां 12 हजार 141 हेक्टेयर में मोइन व तालाब था। समय के साथ इसका क्षेत्रफल घटता चला गया। चार दशक पूर्व में जिले में तालाब की संख्या 3924 थी। इसमें 1623 सरकारी व 2301 निजी थे। वर्ष 1964 के सरकारी दस्तावेज में सिर्फ शहर में 364 तालाब थे।
लोगों की जुबानी, तालाब के किस्से अनेक
शहर से कई तालाबों को भले ही वजूद खत्म हो चुका हो। लेकिन, उसका इतिहास आज भी लोगों के जेहन में जीवंत है। सकमा पुल मोहल्ला के 71 वर्षीय टुनटुन महतो राही की उम्र भले ही अधिक हो गई है। लेकिन, उन्हें भटवा पोखर का इतिहास जुबानी याद है। वे कहते हैं कि शहर का चर्चित म्लेच्छ मर्दिनी मंदिर का इतिहास इसी तालाब से जुड़ा है। वर्षों पहले इसी तालाब से भगवती की प्रतिमा प्राप्त हुई थी।
पोखर के भिंडा पर घास काटने के दौरान प्रतिमा में खुरपी लगी। इससे नाक वाला भाग झर गया। देखते ही देखते मिट्टी के अंदर दबे प्रतिमा से खून निकलने लगा। इसकी जानकारी आसपास के लोगों को हुई। खुदाई करने पर भगवती की प्रतिमा निकली। लेकिन, इस पर दावेदारी को लेकर दो समुदायों में मारपीट हो गई। काफी जद्दोजहद बाद लोगों ने मंदिर की स्थापना कर पूजा-अर्चना करना शुरू की। वे कहते हैं कि भटवा पोखर दो था। एक को सुखी कहा जाता था तो दूसरे को भड़ी। दोनों के बीच रास्ता था। लेकिन, आज वहां बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी हैं।
हनुमानगंज मोहल्ला निवासी श्याम सुंदर तालुका, प्रसाद चौधरी, रघुवीर साह कहते हैं कि मिश्राटोला के दल पोखरा, नाका नंबर छह के बाबा सागर दास तालाब, कबड़ा घाट तालाब का ²श्य आज भी नजर के सामने है। युवाओं की टोली वहां मछली मारती थी। पानी इतना स्वच्छ था कि बिना स्नान किए रह नहीं सकते थे। चापाकलों व नलों की संख्या बढ़ जाने के कारण आज लोग तालाबों के महत्व को भूल गए हैं। यही कारण है कि कई लोगों ने अतिक्रमित कर इसकी प्रकृति को ही बदल डाला है।
यह भी पढ़ें: जलस्रोतों के जीवित रहने पर ही जल संचय संभव