नया नहीं है "कोरोना" नाम, 1800 साल पहले भी जर्मनी में था ईसाई संत कोरोना का अस्तित्व
इन दिनों लोग कोरोना वायरस के संक्रमण से परेशान हैं मगर 1800 साल पहले जर्मनी में एक संत हुआ करती थीं उनका नाम संत कोरोना था। बीमारियों से बचने के लिए उनकी पूजा होती थी।
जर्मनी, एजेंसी। साल 2019 में जब से कोरोना वायरस के नाम का पता चला है दुनियाभर के लोग परेशान हैं। दुनिया के कुछ ही देश होंगे जहां कोरोना ने लोगों को संक्रमित न किया हो और उनकी जान न ले ली हो। इन दिनों कोरोना का नाम दुनिया के लिए नया हो सकता है मगर जर्मनी के लोगों के लिए ये नाम सदियों और दशकों पुराना है।
जर्मनी में 1800 साल पहले एक ईसाई संत हुआ करती थीं उनका नाम कोरोना था। अब जब पूरी दुनिया को कोरोना नाम का पता चल जाएगा ऐसे में लोग ये जानने के भी उत्सुक हैं कि आखिर ईसाई संत कोरोना कौन थीं, कैसे उनका नाम ये पड़ा था, उनका इतिहास क्या है? डीडब्ल्यूए वेबसाइट पर भी ईसाई संत कोरोना के बारे में खबर प्रकाशित की गई है।
जर्मनी की संत थीं कोरोना
कोरोना वायरस से फैली महामारी के बीच में ही जर्मनी की संत कोरोना चर्चा में आ गई हैं। वो जर्मनी के आखेन कैथीड्रल से थी। वहां 9वीं सदी में ही उनका अस्थि अवशेष रखा है। माना जाता है कि आज से करीब 1,800 साल पहले रोमन शासकों ने संत कोरोना का इतना उत्पीड़न किया कि उनकी मौत हो गई। कोरोना का लैटिन भाषा में मतलब होता है "मुकुट.”। आज के कोरोना वायरस को भी इसी तरह से परिभाषित किया गया है। जर्मनी के आखेन शहर में स्थित प्राचीन कैथीड्रल ने कुछ दिन पहले अपने कीमती संग्रहों में से हाल ही में एक भव्य कृति प्रदर्शित की है जिसमें संत कोरोना के कुछ अस्थि अवशेष रखे हुए हैं।
प्रदर्शनी लगाने की थी तैयारी
दरअसल 'कोरोना' नाम की महामारी शुरु होने के काफी पहले से ही कैथीड्रल की योजना थी कि इस साल गर्मियों में वह संत कोरोना से जुड़ी चीजों की प्रदर्शनी लगाएंगे। जनता के लिए प्रदर्शित की गई चीजों में सोने की बनी कई दूसरी बहूमूल्य वस्तुओं के अलावा संत कोरोना की वो समाधि भी है जिस पर सोने, कांसे और हाथी दांत की खूबसूरत नक्काशी है। आखेन कैथीड्रल की प्रवक्ता डानिएला लोएवेनिष ने बताया कि अपनी योजना से थोड़ा पहले ही हम समाधि को बाहर ले आए हैं हालांकि महामारी के इस माहौल में इसे देखने काफी कम लोग पहुंच रहे हैं।
संत कोरोना के बारे में अधिक जानकारी नहीं
9वीं सदी का यह कैथीड्रल पहले पवित्र रोमन सम्राट शार्लेमाग्ने के समाधि स्थल के रूप में मशहूर है, जिनका देहांत सन 814 में हुआ था। उसके बाद के काल में कई जर्मन राजाओं और रानियों का राज्याभिषेक यहां होने की परंपरा रही है, आज भी एक अहम प्राचीन तीर्थस्थल के रूप में इस कैथीड्रल की मान्यता है। सन 997 में राजा ऑटो तृतीय संत कोरोना के अवशेषों को आखेन लेकर आए थे।
पहले सैकड़ों साल तक इन्हें कैथीड्रल में ही एक तख्ते के नीचे रखा गया था और 20वीं सदी की शुरुआत में मुख्य समाधि स्थल पर लाया गया। वो बताती है कि संत कोरोना में हमारी दिलचस्पी कला और इतिहास के नजरिए से है। आखेन में तो नहीं लेकिन बवेरिया और ऑस्ट्रिया के कुछ इलाकों में संरक्षक देवता के रूप में इनकी मान्यता रही है और आज भी है।
कौन करता है संत कोरोना की पूजा
आज जहां कोरोना वायरस फैलने की जगह के बारे में पता चलने पर लोग उस ओर जाना नहीं चाहते हैं वहीं एक समय ऐसा भी था जब लोग संत कोरोना की पूजा किया करते थे। कुछ खास किस्म के लोग उनकी प्रार्थना करते थे। इसमें जुआ खेलने वाले, खजाने की तलाश करने वाले और कसाई शामिल थे। उस काल में अलग अलग पेशों से जुड़े लोगों की आर्थिक मुसीबत के समय में अलग अलग संरक्षक संत हुआ करते थे लेकिन चर्च के कुछ प्रतिनिधि बताते हैं कि स्थानीय तौर पर संत कोरोना को संक्रामक बीमारियों को दूर करने वाली संत भी माना जाता था।
बीमारी से बचाने के लिए करते थे प्रार्थना
लोएवेनिष बताती हैं कि चाहे अपने पालतू पशुओं को संक्रामक बीमारी से बचाना हो या कोई मुश्किल की घड़ी हो, जर्मनी के पड़ोसी देश ऑस्ट्रिया के सेंट कोरोना नाम के एक छोटे से शहर के लोग हर हाल में इसी संत से प्रार्थना करते थे। वे बताती है कि यह एक बहुत ही स्थानीय मान्यता थी लेकिन हाल के समय में इस ओर बाकी दुनिया का भी ध्यान गया है। वो एक अलग समय था मगर आज लोग कोरोना महामारी से बचने के लिए ही प्रार्थना करते नजर आ रहे हैं। गो कोरोना गो जैसे नारे गुंज रहे हैं, इसके अलावा अन्य कई तरह के उपाय भी किए जा रहे हैं।