विश्व हिंदी सम्मेलन में प्रसिद्ध कवि प्रसून जोशी बोले, इतिहास भूल कर सकता है, संस्कृति नहीं
चर्चा की शुरुआत करते हुए प्रसून जोशी ने रामधारी सिंह दिनकर को उद्धृत करते हुए संस्कृति और सभ्यता के अंतर को रेखांकित किया।
अनंत विजय, पोर्ट लुई। विश्व हिंदी सम्मेलन के दूसरे दिन की शुरुआत में संस्कृति को लेकर गर्मागर्म चर्चा हुई। सत्र का विषय था, फिल्मों के माध्यम से भारतीय संस्कृति का संरक्षण। इस सत्र में भाग ले रहे थे सेंट्रल बोर्ड आफ फिल्म सर्टिफिकेशन के चेयरमैन प्रसून जोशी, रंगकर्मी वाणी त्रिपाठी, लेखक कवि यतीन्द्र मिश्र और मॉरीशस के रेडियो ओरिएंटल की प्रमुख शशि दूकन।
चर्चा की शुरुआत करते हुए प्रसून जोशी ने रामधारी सिंह दिनकर को उद्धृत करते हुए संस्कृति और सभ्यता के अंतर को रेखांकित किया। प्रसून ने संस्कृति और सभ्यता के फर्क को बताते हुए इस बात पर जोर दिया कि इतिहास भूल कर सकता है पर संस्कृति नहीं। उन्होंने फिल्म और साहित्य के अंतर्संबंध पर भी प्रकाश डाला। प्रसून के मुताबिक साहित्य समाज को प्रतिबिंबित करता है और समाज भी साहित्य को उतना ही प्रभावित करता है। इसी तरह से फिल्में भी समाज से लेती हैं और उसमें रचनात्मकता मिलाकर समाज को वापस कर देती हैं।
शशि दूकन ने कहा कि देश और जाति की पहचान संस्कृति से होती। फिल्में संस्कृति को गहरे प्रभावित करती हैं। उन्होंने मॉरीशस का उदाहरण देते हुए बताया कि किस तरह से फिल्मों की वजह से उनके देश में डांडिया और होली लोकप्रिय हो गए। चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह ने संस्कृति की अलग तरीके से व्याख्या की।
उनका मानना था कि संस्कृति आदमी को इंसान में बदलती है, वो संस्कार देती है। संस्कृतियां अलग-अलग नहीं हो सकतीं क्योंकि हर जगह मनुष्य की आंतरिक शक्तियों पर विजय प्राप्त करने का तरीका एक जैसा होता है। वाणी त्रिपाठी ने महादेवी वर्मा के हवाले से भाषा में तद्भव और तत्सम के उपयोग में होने वाली कठिनाई का जिक्र किया। वाणी ने संस्कृति के तीन आयामों समाज जीवन और राजनीति को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि जिस तरह से क्रिकेट भारत में धर्म की तरह हो गया है, वैसी ही लोकप्रियता फिल्मों को भी हासिल हो चुकी है । उन्होंने गोपालदास नीरज का उदाहरण देते हुए बताया कि उनके निधन पर ज्यादातर उनके फिल्मी गीतों की ही चर्चा हुई। यतीन्द्र मिश्र ने कहा कि सिनेमा साहित्य का ना तो प्रतिपक्ष है और ना ही विकल्प, उसमें विभिन्न कालखंड के इतिहास का दस्तावेजीकरण होता है।
चर्चा के अंत में श्रोताओं के सवाल-जवाब का सत्र हुआ। इसमें कई श्रोताओं ने फिल्मों पर अपसंस्कृति को बढ़ावा देने का आरोप लगाया। तीन घंटे चले इस सत्र के समानांतर दो और सत्र हुए।
दूसरा सत्र बाल साहित्य पर केंद्रित था जिसमें डॉ. मधु पंत, अलका धनपत और कृष्ण कुमार अस्थाना के अलावा अन्य वक्ता शामिल हुए। इस स्तर में श्रोताओं की उपस्थिति नगण्य रही। सम्मेलन के दूसरे दिन के अंत में अटल जी को कवियों ने काव्यांजलि दी।