दक्षिण कोरिया के स्कूलों में बच्चों की संख्या में आई कमी, बुजुर्ग बन रहे छात्र
बाल जन्म दर के लिहाज से दक्षिण कोरिया में यह दर प्रति महिला एक बच्चे से भी कम है जो विश्व में सबसे कम मानी जाती है।
सियोल, एजेंसी। पढ़ने की इच्छा हो तो कोई भी उम्र ज्यादा नहीं होती। यह सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि दक्षिण कोरिया में भी देखा जा सकता है। यहां आलम है कि दादा-दादी भी स्कूलों के छात्र बन रहे हैं। यहां बच्चों की कम की संख्या के कारण ऐसा हो रहा है। हवांग वल जेयम पहली कक्षा में पढ़ती हैं। हर रोज परिवार के तीन और सदस्यों के साथ स्कूल के लिए जाती हैं। हवांग की उम्र 70 साल है और वह नाती-पोतों के साथ पढ़ने के लिए स्कूल जाती हैं। उनके साथ उनके तीन पोते-पोतियां स्कूल जाते हैं जिनमें से एक किंडर गार्डन में, दूसरा पहली कक्षा में और तीसरा पांचवी कक्षा में है।
दक्षिण कोरिया में बाल मृत्यु दर काफी कम
हवांग का कहना है कि उन्हें जीवन के हालात के कारण पढ़ने लिखने का अवसर नहीं मिला। हालांकि, दक्षिण कोरिया में बुजुर्गों के स्कूल जाने का यह नजारा अब आम है। इस देश के ग्रामीण इलाकों में बच्चों की संख्या कम है। बाल जन्म दर के लिहाज से दक्षिण कोरिया में यह दर प्रति महिला एक बच्चे से भी कम है जो विश्व में सबसे कम मानी जाती है। देश के ग्रामीण इलाकों में बच्चों की संख्या और भी कम होने की एक वजह है कि ज्यादातर आबादी रोजगार के लिए शहरों में चली गई है।
हवांग कहती हैं कि पूरी जिंदगी मैं लगभग अनपढ़ रही और मुझे आज भी छह दशक पहले की जिंदगी याद है जब मैं पेड़ के पीछे छिपकर रोते हुए हमउम्र बच्चों को स्कूल जाते देखती थी। उन दिनों में मैं लकड़ियां बीनने का काम करती थी और छोटे भाई-बहनों की देखभाल का जिम्मा भी मुझ पर ही था। बाद में मेरे छह बच्चे हुए और उन सबको मैंने स्कूल-कॉलेज पढ़ने के लिए भेजा।'
प्रधानाचार्य ने बुजुर्गों को एडमिशन देने का दिया सुझाव
हवांग जिस जिले में आती हैं, वहां भी स्कूल में बच्चों की संख्या कम है। स्कूल के प्रधानाचार्य का कहना है कि हम गांव-गांव में जाकर बच्चों की तलाश कर रहे थे ताकि उनका दाखिला स्कूल में कर सकें। प्रधानाचार्य ली जू-यंग ने कहा कि बच्चों की कम संख्या देखकर हम चिंतित थे और इस 96 साल पुराने स्कूल को बचाने के लिए हम कुछ भी करने को तैयार थे। फिर हमने सोचा कि क्यों न स्कूल में बुजुर्गों को एडमिशन दिया जाए जो पढ़ना चाहते हैं।'
प्रिंसिपल की इस मुहिम में हवांग के साथ 7 और 56 से 80 साल की महिलाएं आगे आईं और उन्होंने स्कूल में दाखिला लिया। हवांग कहती हैं कि फर्स्ट ग्रेड में पहली बार स्कूल जानेवाले बहुत से बच्चे रोते हैं और मैं भी रो रही थी, लेकिन यह खुशी के आंसू थे। मुझे जिंदगी के आखिरी पड़ाव में पढ़ने-लिखने का मौका मिला। पीठ पर स्कूल बैग लटकाकर जाना मेरा हमेशा सपना रहा था।