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विवादों में घिरकर अपने मकसद से भटक चुकी है संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद

भारत में महिलाओं की स्थिति सीरिया जैसे देशों से बेहतर है जहां आतंकियों द्वारा महिलाओं पर अत्याचार किया जाता है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Sat, 30 Jun 2018 10:43 AM (IST)Updated: Sat, 30 Jun 2018 09:53 PM (IST)
विवादों में घिरकर अपने मकसद से भटक चुकी है संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद
विवादों में घिरकर अपने मकसद से भटक चुकी है संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद

(सुशील कुमार सिंह)। दुनिया भर में मानवाधिकारों की रक्षा करने के मकसद से जब साल 2006 में संयुक्त राष्ट्र ने मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) की स्थापना की तब उसे भी शायद यह अहसास नहीं रहा होगा कि कुछ ही समय में यह संस्था विवादों में घिर जाएगी। स्विट्जरलैंड के जेनेवा शहर में स्थित इस परिषद का मुख्य काम मानवाधिकार को प्रोत्साहित करना है, परंतु इस सैद्धांतिक तथ्य और व्यावहारिक पक्ष से यह संगठन दरकिनार होता दिख रहा है। फिलहाल जम्मू-कश्मीर पर उसकी हालिया मानवाधिकार रिपोर्ट विवादों के साये में है। 14 जून को जारी हुई 49 पृष्ठों की इस रिपोर्ट को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के उच्चायुक्त जैद राद हुसैन ने तैयार किया है। उन्होंने मीडिया में आई खबरों, लोगों के बयानों और संभवत: किसी तीसरे देश में हुई कुछ बैठकों के आधार पर अपनी रिपोर्ट तैयार की। यह रिपोर्ट तैयार करने का गलत तरीका है, क्योंकि इससे संदेह बना रहता है कि रिपोर्ट की सामग्री भरोसेमंद है या नहीं? ऐसे तौर-तरीकों से केवल पक्षपातपूर्ण रपट ही तैयार हो सकती है। जैद ने बिल्कुल यही किया है।

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अमेरिका ने तोड़ा नाता

उधर अमेरिका ने भी बीते 19 जून को इस परिषद से यह आरोप लगाकर नाता तोड़ लिया कि 47 सदस्यों वाली यह संस्था इजरायल विरोधी है। साथ ही कहा कि लंबे समय से परिषद में कोई सुधार नहीं आया है, जिसकी वजह से वह बाहर जा रहा है। पड़ताल बताती है कि अमेरिका तीन साल से संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) का सदस्य था। डेढ़ वर्ष पहले ही ऐसी खबर आई थी कि परिषद में सहमति का अभाव और अमेरिका की मांगों को न मानने के चलते वह इससे नाता तोड़ सकता है। बता दें कि पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के शासनकाल में भी अमेरिका ने तीन साल तक परिषद का बहिष्कार किया था, मगर बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद 2009 में अमेरिका परिषद में शामिल हो गया था। दो टूक यह भी है कि अमेरिका बीते कुछ वर्षो से डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में ही कई कड़े कदम उठा चुका है। पेरिस जलवायु समझौता, यूनेस्को और ईरान परमाणु डील से वह पहले ही नाता तोड़ चुका है।

मानवाधिकारों का मजाक

गौरतलब है कि अमेरिका के प्रतिनिधि द्वारा वाशिंगटन में इस परिषद से हटने के संबंध में कहा गया कि हमने यह कदम इसलिए उठाया है, क्योंकि हमारी प्रतिबद्धता ऐसी पाखंडी और अहंकारी संस्था का हिस्सा बनने की अनुमति नहीं देती जो मानवाधिकारों का मजाक बनाती है। उक्त परिप्रेक्ष्य को देखते हुए क्या यह मान लिया जाय कि संयुक्त राष्ट्र की यह संस्था मानवाधिकार का कारगर संरक्षण करने में अक्षम है। जब मार्च 2006 में 60वीं संयुक्त महासभा ने इस परिषद को स्थापित करने के निर्णय की पुष्टि की तो इसे लेकर कई दावे किए गए थे, पर अब यह संस्था पटरी से हटती हुई दिखाई दे रही है। अमेरिका का यह कदम दुनिया में मानवाधिकारों को और असुरक्षित करने में बल दे सकता है। समझने वाली बात यह भी है कि पहले खामियों के चलते रिपोर्टो को खारिज किया जाता था अब तो हाल यह है कि अमेरिका ने यूएनएचआरसी को ही खारिज कर दिया है। मानवाधिकार का सिद्धांत और व्यवहार सर्वाधिक गहन विषयों में से एक है जिसने अंतरराष्ट्रीय संगठनों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। मानवाधिकार का विचार विकास की एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम है।

मानवाधिकारों का हनन

प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मानवाधिकारों के भीषण हनन के चलते संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में मानवाधिकारों की धारणा के संबंध में प्रसंग शामिल किए गए। जिसे लेकर उल्लेखनीय प्रगति 1948 में हुई जब महासभा ने 10 दिसंबर को मानवाधिकार का एक सार्वभौमिक घोषणा पत्र अपनाया और दुनिया भर के मानवों के कारगर संरक्षणकर्ता के रूप में अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का मूर्त रूप सामने आया। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की जगह बनाई गई यह संस्था कई संदेहों से घिर कर अब अपने मकसद से दूर होती दिखाई दे रही है। ऐसा लगता है कि दुनिया के ताकतवर देशों की प्रतिबद्धता मानवाधिकार के मामले में तेजी से घट रही है। एक तरफ देशों के बीच टकराव उग्र हो रहा है तो दूसरी तरफ न्याय और अन्याय को लेकर एक राय बनानी मुश्किल होती जा रही है। इतना ही नहीं नागरिकों के मानवाधिकारों पर जब-जब बात होती है इसकी जवाबदेही सुरक्षाकर्मियों पर थोप दी जाती है।

कमजोर देश शोषण के शिकार

क्या यह बात वाजिब हो सकती है कि अधिकार और न्याय के मामले में बड़े देश संकुचित होते जाएं और छोटे और कमजोर देश शोषण के शिकार। एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई ऐसे देश मिल जाएंगे जो अमेरिका और यूरोपीय देशों से मदद की दरकार रखते हैं। मगर यह सब इसलिए संभव नहीं है, क्योंकि इसमें उनके निजी हित आड़े आते हैं। दरअसल संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद का मुख्य कार्य मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ तालमेल बैठाकर अंतरराष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित करना रहा है। यह संस्था व्यक्तियों, समूहों, गैर-सरकारी संस्थानों की ओर से मिलने वाली शिकायतों पर काम करती है और मानवाधिकार हनन के मामलों की जांच करती है। यह ऑफिस ऑफ द हाई कमिश्नर ऑन ह्यूमन राइट्स (ओएचसीएचआर) के साथ मिलकर काम करती है। यूएनएचआरसी के प्रस्ताव वैधानिक रूप से तो नहीं, नैतिक स्तर पर काफी प्रभावी माने जाते हैं।

खास मामलों में ला सकते हैं विशेष प्रस्ताव

कुछ खास मामलों में मसलन सीरिया, उत्तर कोरिया के विषय में परिषद पूछताछ समिति भी बना सकती है या विशेष प्रस्ताव ला सकती है। वर्ष 2017 में पेश अपनी वार्षिक रिपोर्ट में ओएचसीएचआर ने ऐसे 29 देशों का जिक्र किया जिन्होंने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ कठोर कार्रवाई की। इनमें से नौ देश मानवाधिकार परिषद के सदस्य देश ही निकले जिसे लेकर विवाद होना लाजमी था। तत्पश्चात साल 2018 की ह्यूमन राइट्स वॉच रिपोर्ट में वेनेजुएला, रवांडा, चीन जैसे देशों पर मानवाधिकार हनन के आरोप लगाए गए हैं। ये सभी देश भी मानवाधिकार परिषद के सदस्य हैं। साफ है कि जिन्हें मानवाधिकार संरक्षण के लिए सदस्य देश के रूप में चुना गया वे भी हनन के दोषी हैं। ऐसे में संगठन विशेष का महत्व जाहिर है घटता है। हर साल मार्च, जून और सितंबर में इसके सदस्य आपस में मिलते हैं। फिलहाल दुनिया में मानवाधिकार की रक्षा को लेकर बनी यह संस्था विवादों में फंसती दिख रही है। ऐसे में इसमें बड़े सुधार की जरूरत है।

(लेखक वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में निदेशक हैं)


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