बीजिंग और वाशिंगटन के बीच चल रहा हर तरह से शक्ति संपन्न राष्ट्र बनने का झगड़ा, अपना रहे कूटनीति
इन दिनों दो देशों के बीच सुपरपावर बनने की लड़ाई चल रही है। कोरोनावायरस के प्रसार के बाद से इन दोनों देशों में तल्खी भी काफी बढ़ गई है।
नई दिल्ली, न्यूयॉर्क टाइम्स न्यूज सर्विस। इन दिनों चीन, अमेरिका, भारत, वियतनाम, रशिया और अफगानिस्तान जैसे देश किसी न किसी बात को लेकर चर्चा में बने हुए हैं। इनमें भी सबसे अधिक चर्चा चीन, रशिया, भारत और अमेरिका की हो रही है। एक देश अपनी हैसियत को बरकरार रखने के लिए कूटऩीति के तहत काम कर रहा है तो दूसरा देश अपने को सबसे ऊपर पहुंचाने के लिए रणनीति अपना रहा है। पूरी दुनिया के लिए इन दिनों निश्चित तौर पर अच्छा वक्त नहीं है।
कोरोनावायरस फैलने के बाद अमेरिका और चीन के रिश्ते बिगड़े हुए हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कोरोनावायरस को चाइनीच वायरस कह रहे हैं, उनके विदेश मंत्री माइक पोम्पियो इसे वुहान वायरस का नाम दे रहे हैं। दुनिया को जब से पता चला कि इस वायरस का केंद्र चीन है तभी से उसकी आलोचना हो रही है। लेकिन इन सबके बावजूद चीन के प्रवक्ता उन सभी आरोपों को सिरे से ख़ारिज करते हैं कि उनका देश कोरोना को लेकर दुनिया के सामने तस्वीर साफ करने से बचता रहा।
अमेरिका के फैसले और चीन का जवाब
चीन और अमेरिका के बीच जारी यह जंग केवल बयानों तक सीमित नहीं है। इस दौरान कुछ अहम घटनाएं भी हुई हैं। इस महीने की शुरुआत में जब अमेरिका ने ऐलान किया कि वह इटली समेत दूसरे कई यूरोपीय देशों के यात्रियों के लिए अपने यहां की सीमाएं बंद कर रहा है तो चीन की सरकार ने ऐलान किया कि वह इटली में अपनी मेडिकल टीमें और सप्लाई भेज रहा है।
इटली इस वक्त कोरोना वायरस की सबसे भयंकर मार से जूझ रहा है। चीन ने ईरान और सर्बिया को भी मेडिकल सप्लाई भेजी है। चीन की ओर से किया गया यह ऐलान दुनिया को दिखाने के लिए एक बड़ी बात थी। इससे एक बात ये भी साफ हो गई कि किस तरह से इन दोनों देशों के बीच पर्दे के पीछे एक बड़ी जंग शुरू हो चुकी है। चीन इस मुश्किल के वक्त में दुनिया में एक लीडर के तौर पर खुद को उभारने की कोशिश कर रहा है।
एक बात ये भी कही जा रही है कि कोरोना के खिलाफ इस जंग में लीडरशिप ही सबकुछ है। यह पहला मौका है जब दुनियाभर में देशों की प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं की काबिलियत की जांच हो रही है। मौजूदा राजनीतिक नेताओं को इस आधार पर आंका जाएगा कि इस संकट की घड़ी में उन्होंने कैसे काम किया और कितने प्रभावी तरीके से इसे काबू किया। यह देखा जाएगा कि इन नेताओं ने किस तरह से अपने देश के संसाधनों का इस्तेमाल कर इस महामारी को रोका।
चीन चाहता ग्लोबल इकोनॉमी पर दबदबा
कोरोना वायरस महामारी भी ऐसे समय फैली जब अमेरिका और चीन के रिश्ते पहले से ही एक बिगड़े हुए थे। आंशिक रूप से हुई एक ट्रेड डील दोनों देशों के बीच चल रहे कारोबारी तनाव को कुछ कम करने में शायद ही कामयाब हुई है। चीन और अमेरिका दोनों एक बार फिर से हथियारों की होड़ में जुट गए हैं। दोनों देश भविष्य में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में किसी टकराव के लिए खुद को तैयार करने में जुटे हैं।
चीन इस क्षेत्र में खुद को एक सैन्य सुपरपावर साबित करने में सफल रहा है और अब चीन को लगता है कि अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में एक बड़ी भूमिका निभाने का उसका वक्त आ गया है। इस माहौल में यूएस-चीन के रिश्ते कहीं ज्यादा जटिल हो गए हैं। जब इस वायरस पर जीत हासिल कर ली जाएगी तब चीन का आर्थिक रूप से दोबारा उभरना एक बिखरी हुई ग्लोबल इकनॉमी को फिर से खड़ा करने में अहम साबित होगा।
चीन की मदद लेना ज़रूरी
फिलहाल कोरोना वायरस से लड़ने के लिए चीन की मदद बेहद जरूरी है। मेडिकल डेटा और अनुभवों को लगातार साझा किए जाने की जरूरत है। चीन मेडिकल इक्विपमेंट और मास्क और प्रोटेक्टिव सूट्स जैसे डिस्पोजेबल आइटम का एक बड़ा मैन्युफैक्चरर है। संक्रमित मरीजों का इलाज करने वाली टीमों और इस वायरस से निबटने में काम करने वाले दूसरे लोगों के लिए ये चीजें अहम हैं। बड़े पैमाने पर दुनिया को इन चीजों की सप्लाई की जरूरत है।
कई लिहाज से चीन दुनिया की मैन्युफैक्चरिंग वर्कशॉप है। चीन के अलावा कुछ ही देशों के पास ऐसी ताकत है कि वे अपने यहां उत्पादन को रातों-रात कई गुना बढ़ा सकें। चीन इस मौके को भुना रहा है। दूसरी ओर, राष्ट्रपति ट्रंप के आलोचकों का कहना है कि वे इस मौके पर चूक गए हैं। ट्रंप प्रशासन शुरुआत में इस संकट की गंभीरता को पहचानने में नाकाम रहा।
कौन बनेगा ग्लोबल लीडर?
अब दांव पर ज्यादा बड़ी चीज लगी है और वह है - ग्लोबल लीडरशिप। एशिया मामलों के दो एक्सपर्ट, कर्ट एम कैंपबेल जो कि ओबामा प्रशासन के वक्त पूर्वी एशिया और प्रशांत मामलों के विदेश उपमंत्री रहे, और रश दोषी ने फॉरेन अफेयर्स में अपने हालिया आर्टिकल में लिखा है कि गुजरे सात दशकों में एक ग्लोबल पावर के तौर पर अमेरिका का दर्जा केवल पूंजी और ताकत पर खड़ा नहीं हुआ, बल्कि यह अमेरिका के घरेलू गवर्नेंस की वैधानिकता, दुनियाभर में सार्वजनिक चीजों के प्रावधानों और संकट के वक्त तेजी से काम करने और सहयोग करने की इच्छा के आधार पर भी आधारित था।
इनका कहना है कि कोरोना वायरस की महामारी अमेरिकी लीडरशिप के इन तीनों तत्वों को परख रही है, अब तक वॉशिंगटन इस टेस्ट में नाकाम रहा है। दूसरी ओर, जब वाशिंगटन फिसल रहा है, बीजिंग तेजी से इस मौके और अमेरिकी गलतियों का फायदा उठा रहा है। महामारी के वक्त रेस्पॉन्स में बनी रिक्त स्थिति में वह खुद को ग्लोबल लीडर साबित करना चाहता है।
चीन इस महामारी के वक्त अपनी पहुंच का इस्तेमाल कर रहा है। वह भविष्य के रिश्तों के लिए नए मानक तय कर रहा है। इनमें से एक शायद यह होगा कि चीन तेजी से दुनिया के लिए एक आवश्यक ताकत बन गया है। कोरोना वायरस से लड़ाई के दौरान अपने पड़ोसियों- जापान और दक्षिण कोरिया के साथ होने वाले गठजोड़ और यूरोपीय यूनियन को हेल्थ इक्विपमेंट्स भेजने को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है।
कई पश्चिमी टिप्पणीकार चीन को एक ज्यादा तानाशाही वाला और ज्यादा राष्ट्रवादी देश बनता देख रहे हैं। इन्हें डर है कि महामारी के असर से ये ट्रेंड और तेजी से बढ़ सकते हैं, लेकिन, वॉशिंगटन के ग्लोबल लीडर के दर्जे पर इस महामारी का असर कहीं ज्यादा हो सकता है।