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'रांगा माटी' ने बदली बंगाल के गांवों की परिपाटी, बेरोजगारी से थे ग्रस्त; अब दिखा रहे हुनर

Salute to women. घने जंगल और बंजर जमीन से पटी इस भूमि पर एक व्यक्ति ने विकास का पौधा रोपा और उसे कड़ी मेहनत व लगन से सींचा। वह पौधा अब पेड़ बनकर फल देने लगा है।

By Sachin MishraEdited By: Published: Sun, 03 Nov 2019 02:01 PM (IST)Updated: Sun, 03 Nov 2019 02:01 PM (IST)
'रांगा माटी' ने बदली बंगाल के गांवों की परिपाटी, बेरोजगारी से थे ग्रस्त; अब दिखा रहे हुनर
'रांगा माटी' ने बदली बंगाल के गांवों की परिपाटी, बेरोजगारी से थे ग्रस्त; अब दिखा रहे हुनर

विनय कुमार, कोलकाता। बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर, बांकुड़ा और वीरभूम जिलों के माओवाद प्रभावित कई गांवों में कभी दिन की शुरुआत हिंसा से होती थी और रात आतंक के साये में कटती थी। बदहाली ही यहां के लोगों की तकदीर थी। बेरोजगारी और भुखमरी से सदियों का नाता था। अब इन गांवों के हालात बदल रहे हैं।

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घने जंगल और बंजर जमीन से पटी इस भूमि पर एक व्यक्ति ने विकास का पौधा रोपा और उसे कड़ी मेहनत व लगन से सींचा। वह पौधा अब पेड़ बनकर फल देने लगा है। कभी दो जून की रोटी को तरसने वाले इन गांवों के सैकड़ों परिवार आज खुशहाली की जिंदगी जी रहे हैं। नई इबारत लिखने वाले ये शख्स हैं संजय गुहा ठाकुरता। उनकी छोटी सी पहल ने कई गांवों की सूरत बदल दी है।

यहां के लोगों को मुख्यधारा से जोड़कर विश्वफलक पर पहचान दिलाने के लिए 2012 में संजय ने रांगा माटी नामक संस्था का गठन किया था। संजय ने बताया, 'मैं 2012 में शांति निकेतन से कुछ दूर स्थित जयदेव इलाके के केंगुली गांव गया था, जहां हर साल जयदेव मेला लगता है। वहीं एक फकीर ने मुझे दूसरों के लिए जीने की सीख दी। उनकी बातें सुनकर मुझे अहसास हुआ कि जीवन में कभी निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि कठिन वक्त में तो पूरी ताकत के साथ प्रयास करने की जरूरत है।

एक समय ऐसा भी था, जब मैं गंभीर बीमारी से जूझ रहा था। डॉक्टरों ने मुझे यहां तक कह दिया था कि मेरे जीवन के चंद साल ही बचे हैं। जब ग्रामीणों के साथ काम करना शुरू किया, तब काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। यहां तक कि परिवार ने भी साथ छोड़ दिया, लेकिन हार नहीं मानी। अमेरिका की बड़ी कंपनी की नौकरी छोड़कर मैं इस बड़े काम की पूर्ति में जुट गया था। इस काम में शिल्पकारों ने खूब मदद की।'

नानूर (वीरभूम) की कढ़ाई कलाकार सकीना बीबी कहती हैं, 'रांगा माटी से जुड़ने से पहले मैं खेतों में मजदूरी करती थी। परिवार का भरण-पोषण नहीं हो पाता था। अब हालात बदल गए हैं। मैं काफी खुश हूं।' पश्चिम मेदिनीपुर की स्वर्णा कहती हैं, 'हमारे हुनर को देश-विदेश तक पहुंचाने में रांगा माटी का अहम योगदान है। मेरी पांच बेटियां भी इस उपक्रम से जुड़ी हुई हैं।' नदिया के जमशेद अली अब बुनकरी कर रहे हैं। कहते हैं, 'जब से इस संस्था से जुड़ा हूं, आमदनी का जरिया बन गया है।'

ऐसी बदल रही तस्वीर

रांगा माटी के तहत टेराकोटा, लकड़ी, बांस व थर्माकोल से बनी कलाकृतियां, गहने, खादी के कपड़े, जूट के बैग, बुनकरों द्वारा तैयार विशेष साड़ी, शॉल, हस्त निर्मित नोटबुक समेत विभिन्न उत्पाद तैयार किए जाते हैं। सिर्फ बंगाल या अन्य राज्य ही नहीं, विदेश में भी इनकी मांग है। कई देशों से ऑर्डर मिल रहे हैं। फेसबुक पर तैयार रांगा माटी के पेज के जरिये भी काफी ऑर्डर मिलते हैं। विभिन्न राज्यों के शिल्पकार भी इस संस्था से जुड़ रहे हैं।

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