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Coronavirus Lockdown Effect: बेबसी कहती है 'बोल' दे, खुद्दारी कहती है 'नहीं'!

लॉकडाउन के चलते उनके भी हालात बहुत बुरे हैं जो मांग नहीं सकते काश! जमाना उन तक भी मदद पहुंचाता जिन्हें बोलने में शर्म आती है

By Preeti jhaEdited By: Published: Wed, 27 May 2020 01:25 PM (IST)Updated: Wed, 27 May 2020 01:44 PM (IST)
Coronavirus Lockdown Effect: बेबसी कहती है 'बोल' दे, खुद्दारी कहती है 'नहीं'!
Coronavirus Lockdown Effect: बेबसी कहती है 'बोल' दे, खुद्दारी कहती है 'नहीं'!

सिलीगुड़ी, इरफान-ए-आजम। एक न दिख सकने वाले कोरोना वायरस ने सारी दुनिया को न जाने क्या-क्या दिखा दिया है। आज हर कोई उसके असर से अच्छी तरह वाकिफ हो गया है। कोरोना वायरस के खौफ के चलते

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देशभर में बीते दो महीने से भी अधिक समय से लगातार जारी लॉकडाउन ने आम लोगों विशेषकर मध्यमवर्गीय लोगों की कमर तोड़ कर रख दी है। हर घर जिंदगानी बड़ी मुश्किलों में है। ऐसे दर्द भरे हालात पर शायर नवाज देवबंदी का यह शेर बहुत ही मौजूं नजर आता है कि "भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए... मां ने फिर पानी पकाया देर तक...!

सिलीगुड़ी शहर व आसपास में लॉकडाउन के दौरान बीते दो महीने से जगह-जगह लोगों की सेवा में जुटे समाजसेवियों ने जो अपना अनुभव बताया है वह दिलों को झकझोर देने वाला है। एक समाजसेवी संस्था 'आमरा क जोना' (हम कुछ लोग) से जुड़े समाजसेवी संपा दास ने बताया की कोई यकीन भी नहीं कर सकता है कि आज कैसे-कैसे लोग मुश्किलों में फंसे हुए हैं। वे कल तक खुशहाल थे लेकिन अब उनके लिए दो जून रोटी जुटाना तक मुहाल हो गया है।

शहर के फुटपाथ पर गुजर-बसर करने वाले बेसहारा लोगों को तो बहुत सारे लोगों की मदद मिल जाती है। पका पकाया तैयार खाना उन तक पहुंच जाता है। शहरी बस्तियों के गरीबों तक भी विभिन्न समाजसेवी संस्थाओं की ओर से खाद्यान्न सामग्री पहुंच जाती है।

मगर, मध्यम व निम्न मध्यम वर्ग के ऐसे भी बहुत से पेशेवर लोग हैं जिनका पेशा बीते दो महीनों से ठप है और इस वजह से उनके घर चूल्हे की आग ठंडी होती जा जा रही है। एक वक्त बमुश्किल खाना जुटता है तो एक वक्त पेट पर पत्थर बांधकर भूखे रह, फाका करना पड़ता है।

उन्होंने बताया की जगह-जगह खाद्य सामग्री व भोजन वितरण के दौरान ऐसे कई लोगों ने उन लोगों से मदद मांगी जिनके बारे में कोई विश्वास ही नहीं कर सकता कि उन्हें भी दाना पानी की मदद की जरूरत है। वे लोग बहुत जरूरतमंद हैं मगर रुसवाई के डर से किसी से मांग नहीं सकते। कहीं, फोटो न खिंच जाए, कहीं वीडियो न बन जाए। फिर, जान-पहचान वालों से नजरें मिले तो शर्मसार न होना पड़ जाए। उनकी आंखों को ढंग से पढ़ा जाए तो बहुत सारी दास्तान साफ हो जाती है।

संपा दास ने कहा कि सिलीगुड़ी शहर के बस्ती इलाकों और आसपास के ग्रामीण इलाकों में ऐसे अनगिनत लोग हैं जिन्हें मदद की बहुत जरूरत है। उनमें होटल चलाने वाले, सैलून चलाने वाले, दर्जी, ट्यूशन टीचर, छोटे-मोटे वाहनों के मालिक आदि अनेक तरह के छोटे-मोटे मोटे पेशेवर शामिल हैं। इन सब को मदद की शदीद जरूरत है। 'इस हाथ दे उस हाथ खबर न हो' ऐसे हमदर्द लोगों व संस्थाओं को ऐसे जरूरतमंदों की मदद के लिए आगे आना चाहिए। हम लोगों से जहां तक बन पड़ा ऐसे कुछ लोगों की जरूरत को पूरी करने की कोशिश की है। मगर, एक संस्था या कुछ लोगों की मदद से सारे के सारे या ज्यादातर जरूरतमंदों की जरूरत पूरी हो पाना मुमकिन नहीं है। इस दिशा में समाज के हमदर्द हर उन लोगों व संस्थाओं को आगे आना चाहिए जो नुमाइश के बिना भी जरूरतमंदों की मदद की चाह रखते हैं।

इस बारे में सिलीगुड़ी के जाने-माने समाजसेवी सोमनाथ चटर्जी कहते हैं कि यदि हर एक खुशहाल व्यक्ति अपने एकदम आसपास के केवल एक जरूरतमंद की मदद कर दे तो फिर कहीं किसी को जाना भी नहीं पड़ेगा और लोगों की मदद भी हो जाएगी। खैर, इस पूरे माजरे पर शायर मुनव्वर राणा का यह शेर भी फिट बैठता है कि "मेरी हंसी मेरे गम का लिबास है... मगर, जमाना कहां इतना गम सनाश है...।" काश! जमाना वैसे लोगों का भी गम पहचान पाता और उन्हें दूर करने की कोशिश करता जो शर्म के मारे बोल नहीं सकते, मांग नहीं सकते। 


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