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किस्मत का लेखा काटने निकली कांता

दीपक भट्टाचार्य, कोलकाता : महानगरों में इंसान तेजी से बढ़ रहे हैं लेकिन इंसानियत..? इमारतों मे

By Edited By: Published: Fri, 19 Dec 2014 08:59 PM (IST)Updated: Fri, 19 Dec 2014 08:59 PM (IST)
किस्मत का लेखा काटने निकली कांता

दीपक भट्टाचार्य, कोलकाता

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: महानगरों में इंसान तेजी से बढ़ रहे हैं लेकिन इंसानियत..? इमारतों में तल्ले बढ़ते जा रहें लेकिन दिलों में जगह...?

जवाब कड़वा है। आपको भी पता है। हालांकि उम्मीद मरी नहीं है। मशीन होते महानगर के नफासत पसंदों में अभी भी दिलों की सुनने वाले बचे हैं, जो अंतर्रात्मा की आवाज को दबा नहीं पाते। क्योंकि उन्हें पता है, आंखे फेर लेने से सच्चाई सिर्फ छुपती है, बदली नहीं है।

साल 2007, मार्च महीना खत्म होने को, कोलकाता की उमस तेजी से बढ़ रही है। दमदम में रहनेवाली शिक्षिका कांता चक्रवर्ती रोज की तरह मेट्रो स्टेशन पहुंचने के लिए ऑटो रिक्शे की लाइन में खड़ी हैं। 10.12 की मेट्रो पकड़नी है। लाइन में कई लोग खड़े हैं। नजरे रिक्शे पर लगीं है। तभी फटे हाल दो बच्चियां वहां पहुंची, लोगों से भीख मांगने। कईयों के लिए उनकी उपस्थिति ही बेमानी थी। लेकिन जब बच्चियों का हाथ कांता के आगे फैला, एक शिक्षिका होने के नाते आदतन उन्होंने पूछा लिया-ऐसे भीख क्यों मांग रही है, मां-बाप नहीं है क्या? जवाब मिला पता नहीं कहा हैं। ऐसी ही मुंह से निकल गया तुम लोग पढ़ती क्यों नहीं? जवाब मिला कौन पढ़ाए? आप पढ़ाएंगी?

दो दिन बाद, बढ़ते उमस से अक्सर महानगर में बारिश हो जाती है, वैसा ही कुछ दिन था। आंधी-तूफान के बीच कांता रिक्शे के लिए वहीं लाइन में खड़ी थीं। परेशान, तभी पीछे से आवाज आई, क्या हुई दीदी, आप हमलोगों को नहीं पढ़ाएंगी। कांता के दिल मानों किसी ने जोर से मुक्का मार दिया हो। दिल में उठे ज्वार के बीच चंट्टान सा फैसला लिया कांता चक्रवर्ती ने , हां मैं पढ़ाउंगी तुम्हे, और सिर्फ तुम्हे नहीं , तुम जैसे कईयों को।

पहली बार वहीं कांता ने सोमा व सागरिका का हाथ, जी हां गंदगी में सने दो फूलों का हाथ थामा। हालांकि उसके बाद फिर कभी उन कलियों पर गर्द नहीं जमी।

मई के अंत तक दमदम रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर एक पर शुरू हो गया, निहार कोना। कांता ने दमदम स्टेशन व आसपास के इलाकों के ऐसे गरीब, बेसहारा बच्चियों की तलाश शुरू की। अनाथ, बेसहारा, रेलवे दुघर्टनाओं में परिवार खो चुकी बच्चियां, परिवार के लिए बोझ बन चुकी बच्चियां, नशे की आदी हो चुकी बच्चियां, आज निहार कोना में कुल 20 बच्चियां हैं। उनके सिर पर कांता दीदी का हाथ है। रहने के लिए स्टेशन के हॉकर्स यूनियन का कमरा। बकौल कांता चक्रवर्की, स्टेशन के हॉकर्स ने एक पिता की तरह इन बच्चियों को अपनाया है। उनके वहां आने से पहले व आने के बाद ये हॉकर्स ही बच्चियों का ख्याल रखते हैं। सुखदेव व छोटेलाल के सहयोग के बिना यह संभव ही नहीं था। आज बीसों बच्चियां बाकायदा स्कूल जाती हैं। उनमें से एक अगले साल माध्यमिक की परीक्षा देगी। कांता दीदी की क्लास में बच्चे सिर्फ पढ़ाई ही नहीं करते हैं बल्कि उन्हें कला, खेलकूद और नृत्य की ओर भी सफलता के गुर सिखाए जाते हैं। इनमें कोई कराटे में ब्लैक बेल्ट तो कोई तैराकी का चैंपियन है।

रोज सुबह 7.15 खुद कांता बच्चियों को स्वीमिंक क्लास ले जाती हैं। वहां से लौटने पर एक घंटा वह अपने घर को देती हैं। लेकिन नौ बजे फिर प्लेटफॉर्म ही बच्चों की क्लास चलती है। एक घंटे उन्हें पढ़ाने के बाद वह 10.12 की मेट्रो पकड़ स्कूल के लिए रवाना होती हैं। स्कूल से लौटने पर भी शाम को 5 से 9 बजे तक बच्चों की क्लास स्टेशन के बाहर चलती हैं। हॉकर्स व दैनिक यात्री व खुद कांता बच्चों के खाने पीने व कपड़ों व किताबों का इंतजाम करतीं हैं। बालीगंज स्थित ममता शंकर बच्चियों को प्रत्येक रविवार नृत्य सिखाती हैं।

दीदी की क्लास के इन बच्चों ने अपने हुनर के दम पर अनेक मेडल भी बटोर रखे हैं। सभी बच्चे प्लेटफार्म की पाठशाला के बाद कस्तूरबा विद्यालय, कुमार आशुतोष, मुक्तधारा कारपोरेशन व दमदम केयरलेस स्कूल में भी नियमित शिक्षा लेते हैं। गुड़िया ने जहां आर्ट में विशेष योग्यता हासिल की है वहीं प्रीति इस बार हाईस्कूल की परीक्षा में अपनी काबलियत का प्रदर्शन करेंगी।

शादी के 20 साल हो चुके हैं कांता मां नहीं बन पाई, लेकिन ममता उनमें किसी मां से भी अधिक है।

उनके प्रयासों को अब राज्य सरकार से भी सहयोग मिलने लगा है। शुरुआत में लोंगों ने उनके फैसले को पागलपन बताया, लेकिन पति साथ खड़े थे। आज उनके पांच साथी मीनू, मीता, शिक्षक सुदीप, नारायण व मुन्नु उनके साथ खड़े हैं। सभी दीदी के प्रसायों से अभिभूत हैं।


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