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आजादी की सुबह हिंदुस्तान में होगी या पाकिस्तान में

जलपाईगुड़ी व सिलीगुड़ी का इलाका पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में नहीं गया। हिंदुस्तान का ही रहा। यह खुशी आजादी की खुशी से ज्यादा ही थी, कम न थी।

By Preeti jhaEdited By: Published: Mon, 13 Aug 2018 02:51 PM (IST)Updated: Mon, 13 Aug 2018 02:53 PM (IST)
आजादी की सुबह हिंदुस्तान में होगी या पाकिस्तान में

सिलीगुड़ी, इरफान-ए-आजम।14 अगस्त 1947, गुरुवार का दिन। शाम ढली। रात आई। घरों में लोग खा-पी कर सोने को बिस्तर पर लेट गए। मगर, आंखों में नींद कहां। दिल में चैन कहां। यही चिंता खाए जा रही थी कि आजादी की सुबह हिंदुस्तान में होगी कि पाकिस्तान में?!

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जलपाईगुड़ी व सिलीगुड़ी दोनों जगह लोगों का बुरा हाल था। हर घर में लोग बेचैन थे, बेकरार थे। रेडियो जिनके पास था वे हर घड़ी खबरों पर ही कान लगाए हुए थे। पड़ोसी एक-दूसरे से अवगत हो रहे थे। आधी रात को आजादी की खबर आई। अगली सुबह हुई। आजादी की सुबह। सोने पर सुहागा यह कि जलपाईगुड़ी व सिलीगुड़ी और इसके आसपास का इलाका पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में नहीं गया। हिंदुस्तान का ही रहा। यह खुशी आजादी की खुशी से ज्यादा ही थी, कम न थी।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तत्कालीन दार्जिलिंग जिला अध्यक्ष शिवमंगल सिंह के पौत्र नंदू सिंह अपने दादा से विरासत में मिली यह अनूठी याद साझा करते हुए कहते हैं कि ‘हम बड़े खुशनसीब थे कि हिंदुस्तान में ही रहे’। आजादी वाली उस रात देश भर की तरह यहां भी जश्न का माहौल हो गया। आजादी के दीवानों का जत्था आधी रात में ही घरों से निकल पड़ा।

कोई लालटेन लिए। कोई लाठी तो कोई मशाल। महानंदा नदी किनारे लोग जुटे। ‘वंदे मात्रम..वंदे मात्रम.. जय  हिंदू.. जय भारत.. इंकिलाब जिंदाबाद..’ आदि नारों से माहौल गूंज उठा। जम कर पटाखे छोड़े गए। कांग्रेसी दिग्गज शिवमंगल सिंह ने लोगों को संबोधित किया। देशभक्ति से ओत-प्रोत भाषण दिया। हर किसी में मानो एक नया जोश भर गया।

आजादी की सुबह यानी शुक्रवार के दिन रेडियो पर पंडित नेहरू के भाषण का सबको बेसब्री से इंतजार था। जब भाषण प्रसारित हुआ तो जगह-जगह सामूहिक रूप में सुना गया। सिलीगुड़ी के सबसे वरिष्ठ नागरिक 98 वर्षीय शिवप्रसाद चट्टोपाध्याय बताते हैं कि अगस्त महीना शुरू होते ही आजादी का माहौल बनने लगा था। हम लोग यहां अमृत बाजार पत्रिका व आनंद बाजार पत्रिका और युगांतर आदि अखबारों के माध्यम से आजादी की हर हलचल से अवगत होते रहते थे।

तब, सिलीगुड़ी की आबादी बमुश्किल 10-12 हजार ही रही होगी। उस समय अखबार दो पैसे में आता था। यहां एक दिन पुराना अखबार ही मिल पाता था। आजादी का ऐसा माहौल था कि हर जगह उसी की चर्चा थी, बस उसी की चर्चा। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों को याद करते हुए वह कहते हैं कि सिलीगुड़ी में आज जहां मायेर इच्छा कालीबाड़ी है वहां उस समय बहुत घना जंगल हुआ करता था।

आजादी के मतवालों में गरम दल के लोग उसी जंगल में अस्त्र-शस्त्र का प्रशिक्षण लिया करते थे। यह भी कहा जाता है कि यहां का ‘फांसीदेवा’ अंग्रेजों के जमाने में बड़ा ही खतरनाक इलाका माना जाता था। स्वतंत्रता के पैरोकारों को अंग्रेज वहीं ले जा कर फांसी दिया करते थे। इसीलिए वह क्षेत्र तब से अब तक फांसीदेवा के नाम से ही जाना जाता है।’


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