याद किए गए प्रेमचंद, रचनाधíमता पर मंथन
-जागरण ने किया वेब गोष्ठी का आयोजन -कोलकाता के साथ मॉरीशस से भी जुड़े मेहमान जागरण
-जागरण ने किया वेब गोष्ठी का आयोजन
-कोलकाता के साथ मॉरीशस से भी जुड़े मेहमान
जागरण संवाददाता, सिलीगुड़ी : कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद की 140वीं जयंती के उपलक्ष्य में शुक्रवार 31 जुलाई को दैनिक जागरण (सिलीगुड़ी) की ओर से एक वेब-गोष्ठी का आयोजन किया गया। इसका विषय था रचनाधíमता : प्रेमचंद और आज के रचनाकार। इस विषय पर मंथन को मॉरीशस, कोलकाता, सिलीगुड़ी व उत्तर बंगाल के विद्वजनों ने भाग लिया। वैसे कुछ तकनीकी कारणों से यह वेब-गोष्ठी सुचारू रूप में पूरी तरह आयोजित नहीं हो पाई। मगर, फिर भी यथासंभव रूप में वक्ताओं ने अपने विचार व्यक्त किए। पेश हैं अतिथि वक्ताओं के विचारों के प्रमुख अंश। ---------- प्रेमचंद का जमाना अलग था और आज का जमाना अलग है। तब और अब मैं जमीन-आसमान का अंतर आ गया है। इसके बावजूद रचनाधíमता तो सदैव सामाजिक सरोकारों के प्रति ही प्रतिबद्ध रहती है। प्रेमचंद यथार्थवादी शैली के साहित्यकार थे, जो कि जरूरी भी है। उन्होंने रूढ़विाद, संकीर्ण विचारधारा व साप्रदायिकता आदि का मुखर विरोध किया था। वह केवल मात्र कलम के सिपाही नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति के भी सिपाही थे। आज के रचनाकारों में कई हैं जो उनकी रचनाशीलता को बरकरार रखे हुए हैं और कई हैं जिन्हें उनसे कोई मतलब नहीं है। ऐसे भी बहुत से रचनाकार हैं जो अपना निजी हित, निजी लक्ष्य निर्धारित कर के ही रचनाशीलता में लगे हुए हैं। ऐसे रचनाकारों को समय खुद ही किनारे लगा देता है। रचनाकारों के लिए रचनाधíमता सर्वोपरि होनी चाहिए और वह है सामाजिक सरोकार के प्रति उत्तरदायित्व।
डॉ. सत्यप्रकाश तिवारी
एसोसिएट प्रोफेसर
अध्यक्ष-हिंदी विभाग
शिबपुर दीनबंधु इंस्टीट्यूशन (कॉलेज)
कलकत्ता विश्वविद्यालय
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प्रेमचंद की रचनाधíमता के संदर्भ में देखें तो आज के रचनाकारों के लिए यह जरूरी नहीं है कि वे भी वैसा ही लिखे हैं जैसा प्रेमचंद ने लिखा है। क्योंकि, प्रेमचंद का काल परिस्थितिया और संदर्भ अलग थे। आज का काल परिस्थितिया और संदर्भ अलग हैं। प्रेमचंद के संदर्भ में आज के रचनाकारों को यह ध्यान रखना चाहिए कि घटनाओं और विषयों का मिलान नहीं बल्कि रचना दृष्टि का मिलान होना चाहिए। वह रचना दृष्टि है सामाजिक सरोकार। प्रेमचंद की रचनाशीलता सदैव सामाजिक सरोकारों के प्रति समíपत रही। मगर, आजकल बहुत से रचनाकार हैं जो सामाजिक सरोकार नहीं बल्कि राजनीतिक सरोकार के प्रति समíपत हैं। प्रेमचंद आर्य समाज के सदस्य रहे लेकिन जब मुसलमानों का धर्मांतरण कराने की कोशिश की गई तो उन्होंने उसका मुखर विरोध किया। वह स्वयं में ही अतिक्रमणशील थे। आज के रचनाकारों के लिए क्या ऐसा संभव है?
डॉ. अजय कुमार साव
अध्यक्ष-हिंदी विभाग
सिलीगुड़ी महाविद्यालय
उत्तर बंगाल विश्वविद्यालय
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प्रेमचंद ने सदैव शोषण के विरुद्ध कलम उठाई। आज कितने रचनाकार हैं जो ऐसा करते हैं। प्रेमचंद के लिए सामाजिक सरोकार सर्वोपरि था। आज के ज्यादातर रचनाकारों के लिए निजी सरोकार सर्वोपरि है। रचनाधíमता बस और बस सामाजिक सरोकारों के प्रति जवाबदेही है। जो इसके वाहक हैं, वही रचनाकार हैं। एक और अहम बात यह भी कि, वर्तमान महामारी के संकट में प्रेमचंद के प्रति सच्ची श्रद्धाजलि उनकी जयंती मनाना नहीं बल्कि किसी भूखे जरूरतमंद मजदूर को खिला देना और उसकी मदद करना है।
राज हीरामन
वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार
त्रिओले-मॉरीशस
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प्रेमचंद बहुत ही महान साहित्यकार हैं। पर, उनके संदर्भ में आज के रचनाकारों और आज के रचनाकारों के संदर्भ में उनकी बातें करें तो यह मामला जरा अजीब सा हो जाता है। क्योंकि, उनके समय की सामाजिक परिस्थितिया अलग थीं और आज के समय की सामाजिक परिस्थितिया अलग हैं। बहुत कुछ परिवर्तन हुआ है। दलित व स्त्री विमर्श और किसानों की अवस्था सब कुछ में तब के समय की तुलना में अब अलग माजरा है। आज के नए दौर में बहुत से ऐसे रचनाकार हैं जो नया-नया लिख रहे हैं। बहुत बेहतर लिख रहे हैं। आने वाला समय उनका और भी बेहतर मूल्याकन कर पाएगा। प्रेमचंद भले कुछ हद तक आज भी ग्रामीण भारत के संदर्भ में प्रासंगिक हों लेकिन नए जमाने व नए संदर्भ में देखें तो प्रेमचंद की रचनाएं पुरानी नजर आती हैं।
डॉ. वंदना गुप्ता
वरिष्ठ शिक्षिका, कवयित्री व लेखिका
(सिलीगुड़ी)
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प्रेमचंद के विचारों पर कोई शासन नहीं कर पाया। पर, आज के ज्यादातर रचनाकार ऐसे हैं जिनके विचारों पर शासन सहज है बल्कि उनका अपना कोई विचार ही नहीं है। आज के ज्यादातर रचनाकार अपनी नहीं लिख रहे बल्कि उन पर जो थोपा जा रहा है वही लिख रहे हैं। अत्याधुनिक पूंजीवाद, बाजारवाद व उपभोक्तावाद में वे इस तरह चौंधिया गए हैं कि सामाजिक जीवन से कट कर बाजार का अंग हो कर रह गए हैं। इसी वजह से वे सामाजिक संवेदनाओं को महसूस नहीं कर पाते और उसे प्रकट नहीं कर पाते। प्रेमचंद के समय और आज के समय में बदलाव हुआ है, इसमें कोई शक नहीं है। मगर, गौर करें तो यह सिर्फ ऊपरी ऊपरी और सतही बदलाव है। आज एक ओर रफाल का मीथ है जो राजमार्ग पर शान से चल रहा है और एक ओर हड्डी मास की काया वाले प्रवासी मजदूर जो नंगे पाव अपने गाव जाने को मजबूर हैं। आज के रचनाकारों को इस सामाजिक अंतíवरोध को समझना होगा और उस पर मुखर होना होगा।
राजा पुनियानी
प्रसिद्ध कवि व साहित्यकार
(सिलीगुड़ी-उत्तर बंगाल)
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रचनाधíमता अब रचनाधíमता नहीं रही। प्रेमचंद ने एक संप्रदाय विशेष के होते हुए भी एक रचनाकार के तौर पर तटस्थ रूप में सद्भाव का संदेश दिया और संप्रदायिकता का मुखर विरोध किया। मगर, आज कितने रचनाकार ऐसा करते हैं? प्रेमचंद ने सदैव सरकार के विरोध में ही लिखा आज के कितने रचनाकारों में ऐसी हिम्मत है? जबकि, आज रचनाकारों की संख्या अनगिनत है। सोशल मीडिया के द्वारा सहज ही व्यापक पहुंच के मद्देनजर आज हर कोई साहित्यकार है। जो साहित्य का स भी नहीं जानता वह भी साहित्यकार है। एक और अहम विडंबना यह है कि सरकार किसी को अच्छी लगती है तो बस अच्छी ही लगती है। उसकी हर बुराई भी अच्छी ही लगती है। जबकि, किसी को बुरी लगती है तो बस बुरी ही लगती है और उसकी बहुत सी अच्छाई भी बुरी ही लगती है। आज कोई तटस्थ नहीं है। यह चिंतनीय है। रचनाधíमता के लिए यह बड़ा सवाल है। इस पर आज के रचनाकारों को मंथन करना चाहिए।
रहीम मिया
सहायक प्राध्यापक
बानरहट काíतक उराव हिंदी गवर्नमेंट कॉलेज
बानरहट-जलपाईगुड़ी