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आधुनिकता में विलुप्त हो रही पंवरिया प्रथा

By Edited By: Published: Sat, 10 Dec 2011 01:01 AM (IST)Updated: Sat, 10 Dec 2011 01:01 AM (IST)

रवि शंकर चौबे, कुल्टी :

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विविध सांस्कृतिक व परम्पराओं के देश भारत में पंवरिया के पौराणिक गायन तथा नृत्य की एक अलग पहचान है। लोगों में मान्यता रही है कि पंवरिया समाज के लोगों द्वारा बच्चे के जन्म पर नाचना व गाना काफी शुभ होता है। अत: बच्चों के जन्म पर जिस तरह किन्नरों का इंतजार रहता है। वैसे ही लोग पंवरिया का भी इंतजार करते हैं।

परंतु आधुनिकता की चकाचौंध में परंपरागत पांवरिया प्रथा विलुप्त होने की कगार पर है। कुल्टी हसनपुरा में रहने वाले शिल्पांचल के एक मात्र पंवरिया हमीद ने बताया कि वर्षो पहले उनके दादा सिवान बिहार से आकर कुल्टी में बस गये। वर्षो पुरानी परंपरा के अनुसार शहर में घूम-घूमकर एक टोली बनाकर बच्चों के जन्म लेने का पता लगाते थे। उसके बाद वहां जाकर गीत-संगीत, गायन के साथ पौराणिक कथा, गीत के माध्यम से ढोल और सारंगी बजा कर , कभी घाघरा पहनकर, महिलाओं का रूप धारण कर लोगों का मनोरंजन किया करते थे। साथ ही जिस घर में बच्चों का जन्म होता था। पंवरिया आने पर आस पड़ोस की महिलाओं को नेग-न्योछावर देने के लिए बुलाया जाता था। पंवरिया मुंह मांगा नेग-न्याछावर मांगते थे। लोग भी खुशी-खुशी चावल, दाल, नगदी व कपड़े समेत आभूषण देते थे। इस परंपरागत व्यवसाय में पंवरिया समाज अच्छी खासी आमदनी करता था। साथ ही परिवार का भरणपोषण होता था। परंतु आधुनिकता में लिपटे वर्तमान समाज में किसी के पास इतना समय ही नहीं है कि वे पंवरिया की गीत सुन सके। परिणामस्वरूप एक युग से चली आ रही पंवरिया प्रथा धीर-धीरे समाप्त होने लगी है। इस प्रथा से जुड़े पंवरिया की कमाई इतनी कम हो गयी है कि मुश्किल से दो वक्त की रोटी नसीब होती है। ऐसे में परिवार का पालन-पोषण तथा बच्चों को पढ़ाना-लिखाना कठिन हो गया है। अत: इस प्रथा से जुड़े लोग अपना पुस्तैनी धंधा छोड़कर दूसरे क्षेत्रों में पलायन करने लगे हैं। पलायन का परिणाम यह हुआ है कि आज पूरे क्षेत्र में केवल हमीद पंवरिया ही एक मात्र बच गये, जो इस परंपरा को जीवित रखे हैं। लगभग 65 वसंत पार कर चुके हमीद पंवरिया, अहले सुबह घर से निकल कर आसनसोल शिल्पांचल सहित झारखंड के सीमावर्ती क्षेत्रों में भटक कर मुश्किल से दो वक्त की रोटी जुगाड़ कर पाते हैं।

बिहार से आए पंवरिया

पंवरिया समाज की उत्पत्ति विशेषकर बिहार में हुई । यहां आज भी गांव-गांव में पंवरिया समाज बच्चे के जन्म पर गायन और पौराणिक कथा सुनाते हैं। परंतु रोजगार की तलाश में जब बिहार के लोग बंगाल व झारखंड में बसने लगे। उसी दौरान पंवरिया समाज भी पलायन कर उनके साथ आ गये।

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