जीवन की बगिया महकाएंगे अपनी धरा पर खिलखिला रहे विदेशी फूल
हल्द्वानी स्थित वन अनुसंधान केंद्र की नर्सरी में इन प्रजातियों के पौधों के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने में सफलता मिली है।
हल्द्वानी, गोविंद बिष्ट। नीदरलैंड्स, साउथ अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका और पूर्वी एशिया में पैदा होने वाली सजावटी (कट फ्लावर) फूलों की प्रजातियों को उत्तराखंड की जमीन भी रास आने लगी है। हल्द्वानी स्थित वन अनुसंधान केंद्र की नर्सरी में इन प्रजातियों के पौधों के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने में सफलता मिली है। ट्यूलिप के बाद अब ग्लेडियोलस व लिलियम के फूल भी यहां खिलखिला रहे हैं।
विभाग का मकसद इन महंगे सजावटी फूलों के अधिकाधिक उत्पादन से काश्तकारों को आर्थिकी मजबूत करने का विकल्प उपलब्ध कराना है। नीदरलैंड्स के ट्यूलिप को भारत में सबसे पहले कश्मीर में लगाया गया था। जिसके बाद उत्तराखंड में सर्वाधिक ऊंचाई (2500 मीटर) वाले पिथौरागढ़ जिले में इसका ट्रायल किया गया, जो सफल रहा। इसे देखते हुए वन अनुसंधान केंद्र ने पिछले साल ट्यूलिप के साथ-साथ 16 से 25 डिग्री सेल्सियस तापमान में उत्पादित होने वाले अफ्रीकन ग्लेडियोलस या के साथ-साथ यूरोप और एशिया के लिलियम पर प्रयोग किया।
समुद्र तल से 425 मीटर ऊंचाई पर स्थित हल्द्वानी के वातावरण, तापमान और मिट्टी आदि के विशेष संयोजन में तीनों प्रजातियों के फूल खिल उठे हैं। वन अनुसंधान केंद्र के रेंजर मदन बिष्ट ने बताया कि नर्सरी में प्रायोगिक सफलता के बाद अब इसे आम किसानों के लिए विस्तार दिया जाएगा। केंद्र द्वारा इन प्रजातियों को तैयार करने का मकसद खूबसूरत नर्सरी तैयार करने से इतर काश्तकारों को इनके आर्थिक लाभ के प्रति जागरूक करना है। उत्तराखंड में पारंपरिक फूलों की खेती की अपेक्षा इनकी खेती कई गुना अधिक मुनाफा देने वाली होगी। बड़े शहरों के बाजार में इन तीनों विदेशी प्रजातियों की काफी डिमांड है।
कश्मीर में बड़ी मात्रा में नीदरलैंड्स प्रजाति के ट्यूलिप की खेती की जाती है। वन अनुसंधान केंद्र की टीम ने वहां से लाकर पहले पिथौरागढ़ में इसे जमीन पकड़ाने में सफलता पाई और उसके बाद हल्द्वानी में पौध लगाई। यह तीनों सर्दियों के अंत में खिलने वाले पौधे हैं।
भारतीय बाजार में इन प्रजातियों के फूलों की साल भर डिमांड रहती है। वन अनुसंधान केंद्र इनकी पैदावार से जुड़ी जानकारी अब इसी नर्सरी के माध्यम से देगा। राज्य के अन्य हिस्सों में भी यह प्रयोग किया जाएगा।
संजीव चतुर्वेदी, वन संरक्षक (अनुसंधान), हल्द्वानी, उत्तराखंड