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मां की मौत ने बदल डाली फौजी की दुनिया, पहाड़ के इस दुश्मन के खिलाफ खोला मोर्चा

बीते 15 वर्षों से पहाड़ को चीड़मुक्त बनाने के प्रयासों में जुटे सेवानिवृत्त लांस हवलदार रमेश बौड़ाई की मेहनत का ही नतीजा है कि बीते दस वर्षो से वन महकमे ने पर्वतीय क्षेत्रों में चीड़ के पौधों का रोपण पूरी तरह बंद कर दिया है।

By Raksha PanthriEdited By: Published: Wed, 18 Aug 2021 04:10 PM (IST)Updated: Wed, 18 Aug 2021 04:10 PM (IST)
मां की मौत ने बदल डाली फौजी की दुनिया, पहाड़ के इस दुश्मन के खिलाफ खोला मोर्चा।

अजय खंतवाल , कोटद्वार। एक ऐसा शख्स, जिसने सेना से सेवानिवृत्ति के बाद पहाड़ के एक ऐसे दुश्मन के खिलाफ मोर्चा खोला, जिसने इस सैनिक की मां समेत कई जिंदगी अनायास लील ली थीं। यही नहीं, इस दुश्मन के कारण पहाड़ में प्रतिवर्ष कई हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ जाता है। बीते 15 वर्षों से पहाड़ को चीड़मुक्त बनाने के प्रयासों में जुटे सेवानिवृत्त लांस हवलदार रमेश बौड़ाई की मेहनत का ही नतीजा है कि बीते दस वर्षों से वन महकमे ने पर्वतीय क्षेत्रों में चीड़ के पौधों का रोपण पूरी तरह बंद कर दिया है।

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पौड़ी जिले के बीरोंखाल ब्लाक स्थित ग्राम नंदाखेत निवासी रमेश बौड़ाई के सिर से पिता का साया महज 15 वर्ष की उम्र में उठ गया था। उनके पिता शंभू प्रसाद तब बंगाल पुलिस में तैनात थे। हालांकि, मां बीछा देवी ने उन्हें पिता की कमी महसूस नहीं होने दी और वर्ष 1981 में वो गढ़वाल राइफल्स रेजीमेंट की 14वीं बटालियन में भर्ती हो गए। बीस वर्ष सेना में सेवाएं देने के बाद वर्ष 2000 के आखिर में वे लांस हवलदार के पद से सेवानिवृत्त होकर गांव लौट आए।

रमेश को जून 2005 की वह दुपहरी आज भी याद है, जब उनकी मां गांव के समीप ही जंगल में घास काटते हुए चीड़ के पिरूल में फिसलकर खड्ड में जा गिरी। इससे सिर पर गहरी चोट आने के कारण अस्पताल पहुंचाने से पहले ही उनकी मौत हो गई। रमेश ने मां की मौत के लिए चीड़ के उस पिरूल को जिम्मेदार माना, जो पूर्व में भी कई ग्रामीणों की जिंदगी लील चुका था। साथ ही इस पिरूल के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिवर्ष कई-कई हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ रहे थे।

चीड़ हटाओ आंदोलन की हुई शुरुआत

गांव के पैतृक घाट में मां की चिता को अग्नि देते हुए रमेश ने संकल्प लिया कि वे पहाड़ को चीड़मुक्त करके ही दम लेंगे। इसलिए घर लौटकर वे इस मुहिम में जुट गए। रमेश जहां आमजन को बांज, देवदार, जामुन, आंवला समेत अन्य प्रजाति के पौधों का रोपण करने के लिए जागरूक करते, वहीं वन महकमे से लगातार पत्रचार कर चीड़ के रोपण पर रोक लगाने की मांग करते करते। प्रयास सफल रहे और वर्ष 2010 से वन महकमे ने प्रदेश में चीड़ के रोपण को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया।

रमेश बौड़ाई अपनी पेंशन से खरीदते थे पौधे

रमेश बताते हैं कि तीन वर्ष पूर्व तक वे अपनी पेंशन के एक हिस्से से बांज, देवदार समेत अन्य प्रजाति के पौधों की खरीद कर उसे ग्रामीणों में वितरित करते थे। शुरुआत में छह-सात रुपये प्रति पौधा खरीद होती थी, लेकिन वक्त के साथ पौधों की कीमत बढ़ती चली गई। वर्ष 2016-17 में उन्होंने 15 रुपये प्रति पौधे के हिसाब से खरीद की। बाद में वन विभाग का सहयोग भी उन्हें मिलने लगा और बीते तीन वर्षों से विभाग न सिर्फ उन्हें पौधे मुहैया करा रहा, बल्कि उनके अभियान में भी साथ रहता है।

वर्ष 2005 से लगातार कर रहे हैं पौध रोपण

वर्ष 2005 से रमेश हर साल ग्रामीणों के सहयोग से बीरोंखाल ब्लाक के साथ ही पौड़ी जिले में अलग-अलग स्थानों पर पांच से छह सौ पौधों का रोपण करते आ रहे हैं। रोपित पौधों के संरक्षण की जिम्मेदारी ग्रामीण स्वयं उठाते हैं। रमेश के प्रयासों से नंदाखेत के अलावा लोदली, नंदा देवी, थल्दा, कंडोलिया और बैंजोली गांव में ग्रामीणों ने चीड़ के स्थान पर मिश्रित वन तैयार कर दिए हैं।

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