स्वतंत्रता आंदोलन और आजाद भारत के इतिहास का आख्यान है 'आजादी से पहले आजादी के बाद'
Azadi Se Pahle Azadi Ke Baad इतिहास सिर्फ तारीखों का दस्तावेज नहीं अतीत की धुंधली होती जा रही तस्वीरों को साफ देखने का जरिया भी है। इस विषय पर निष्पक्ष होकर लिखना चुनौतीभरा होने के साथ ही बेहद जिम्मेदारी का भी काम है।
हल्द्वानी, स्कंद शुक्ल : इतिहास सिर्फ तारीखों का दस्तावेज नहीं, अतीत की धुंधली होती जा रही तस्वीरों को साफ देखने का जरिया भी है। इस विषय पर निष्पक्ष होकर लिखना चुनौतीभरा होने के साथ ही बेहद जिम्मेदारी का भी काम है। खासकर ऐसे दौर में जब इसकी इतनी भ्रामक और तथ्यहीन व्याख्या हो रही हो जिसका कोई सिर-पैर ही न हो। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन पर अनगिनत पुस्तकें और शोध प्रबंध प्रकाशित हो चुके हैं, नि:संदेह आगे भी होते रहेंगे। यह सिर्फ ब्रितानी हुकूमत की गुलामी से आजादी का आंदोलन नहीं था। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन ने दुनिया को बताया कि आजादी के लिए संघर्ष का रास्ता कैसा होना चाहिए। दुनिया को अहिंसा का व्यावहारिक पाठ भारत ने ही पढ़ाया। संघर्ष का यह आख्यान इतना व्यापक और हर दौर में प्रासंगिक है कि इस पर जितना ही लेखन और पुनर्पाठ हो कम ही होगा। देश के लिए शहादत देने वाले क्रांतिकारियों व आंदोलनकारियों की गाथा को नई पीढ़ी से परिचित कराना लेखकों और इतिहासकारों की ही जिम्मेदारी है। ऐसे में इस काम को वरिष्ठ पत्रकार राज खन्ना ने पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ पूरा किया है। प्रतीक बुक्स दिल्ली से प्रकाशित उनकी पुस्तक 'आजादी के पहले, आजादी के बादÓ इन दिनों चर्चा में है।
इस किताब में स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर इमरजेंसी तक उन जरूरी अध्यायों पर लिखा गया है, जिनकी इस दौर में सर्वाधिक निराधार व्याख्या की जा रही है। सरदार पटेल और नेहरू के संबंधों से लेकर, भगत सिंह की फांसी और महात्मा गांधी की भूमिका, जैसे प्रसंगों को ऐसे तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जा रहा है जो खुद में बेहद हास्यास्पद है। तुर्ररा यह कि किताबों से दूर होती पीढ़ी ऐसे 'प्रहसनों' को सहज स्वीकार भी कर रही है। लिहाजा यह किताब इस समय में एक जरूरी हस्तक्षेप है। इसका आग्रह है कि इतिहास को तथ्यों और सही संदर्भों में समझा जाए। जाहिर तौर पर इतिहास की तारीखें नहीं बदलती हैं...घटनाक्रम वही रहता है... लेकिन उसे देखने, समझने और उसकी व्याख्या करने का हर किसी का अपना दृष्टिकोण होता है। राज जी का अपना नजरिया है। वह पेशे से पत्रकार हैं तो तथ्यों की पड़ताल करना उनकी फितरत है। इस पुस्तक को आकार देने के लिए वह तमाम किताबों, जीवनी, अदालती फैसलों, पत्रों और दस्तावेजों से गुजरे हैं। इसे पुस्तक पढ़ते समय हर पन्ने पर महसूस किया जा सकता है। पुस्तक की भाषा बेवजह के शब्दों का भार नहीं, आवाम की भाषा है। धारा प्रवाह पढ़ते जाइए, पूरे हालात खुद ही स्पष्ट होते जाएंगे। इतिहास के छात्रों के साथ किताबें पढऩे के शौकीन इसे अपने सेल्फ में रखना जरूर पसंद करेंगे। यह पुस्तक रिफ्रेंस बुक के तौर पर भी ली जाएगी।
देश को आजादी किन शर्तों पर मिली, विभाजन की त्रासदी, जिन्ना, महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, सरदार पटेल, नेताजी, रियासतों का विलय, कश्मीर विवाद, आजादी के अनसंग हीरो और आजादी के बाद इमरजेंसी तक के इतिहास को समझने की दृष्टि से यह किताब एक जरूरी दस्तावेज बन गई है। यदि आपने रामचन्द्र गुहा, कुलदीप नैयर, लोहिया, वीपी मेनेन जैसे लेखकों को नहीं पढ़ा है तो यह आपके लिए है। बेहद सहज और सधी हुई भाषा में 254 पेज की किताब को आप एक बैठक में पढ़ सकते हैं। किताब की भूमिका में वरिष्ठ पत्रकार सुभाष राय लिखते हैं...राज खन्ना का लिखा हुआ पढ़ते हुए लगता है कि जैसे वह बोल रहे हों। इस तरह से लिखा हुआ अदना से अदना आदमी भी आसानी से समझ सकता है। कहूं तो गलत नहीं कहूंगा...उनकी भाषा अखबारी है। अखबारी यानी हिंदुस्तानी जो आम लोग बोलते और समझते हैं। वहीं किताब के ब्लर्ब में वरिष्ठ पत्रकार सूर्यनाथ सिंह लिखते हैं...राज खन्ना मूलत: पत्रकार हैं, इसलिए उनकी नजर में इतिहास के झगड़े ज्यादा चुभते हैं। किताब के लेख खोलते तो इतिहास के परतों को हैं पर इनमें रस ललित निबंधों का है। यानी यह किताब भाषा व कंटेंट के स्तर पर आपको कहीं ऊबने नहीं देती है। इसका हर अध्याय आपको आगे पढऩे के लिए बाध्य करता है।
किताब तीन अध्यायों में बंटी है। आजादी की अलख, जो भुला दिए गए और आजाद भारत। पहला अध्याय, आजादी, विभाजन की त्रासदी, गांधी और जिन्ना, चौरी चौरा, भारत छोड़ो आंदोलन, सुभाष चन्द्र बोस, भारत में रियासतों का विलय, सरदार पटेल और अनुच्छेद 370 केंद्रित है। दूसरे अध्याय में आजादी के उन नायकों की चर्चा है जिन्हेंं स्वतंत्रा आंदोलन के इतिहास में शायद वह स्थान नहीं मिला जिसके वह वास्तविक हकदार थे। उन क्रांतिकारियों में चापेकर बंधु, विप्लव प्रतीक, खुदीराम बोस, मदन लाल ढींगरा, गदर पार्टी के गुमनाम शहीद, जतीन्द्र दास, ऊधमसिंह आदि पढऩे के लिए मिल जाएंगे। तीसरा अध्याय आजादी के बाद का आख्यान है, जिसे इमरजेंसी तक कवर किया गया है। पुरुषोत्तम दास टंडन, आचार्य नरेन्द्र देव, भारत-चीन युद्ध, लोहिया, गणेश शंकर विद्यार्थी, दीन दयाल उपाध्याय, इंदिरा गांधी 1971 का युद्ध, इमरजेंसी, मोरारजी देसाई व चन्द्रशेखर के बारे में संक्षिप्त लेकिन सारगर्भित पढऩे के लिए मिलता है।