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अनोखा है उत्तराखंड का लोकपर्व सातों- आठों, जानें क्या हैं मान्यताएं, क्यों मनाते हैं लोग

विहंगम हिमालयी भूभाग को शिव की भूमि माना जाता है। अलग-अलग स्थानों में शिव के कई रूपों में पूजा होती है। उनकी अर्धांगिनी पार्वती हैं।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Sun, 23 Aug 2020 08:22 AM (IST)Updated: Sun, 23 Aug 2020 08:22 AM (IST)
अनोखा है उत्तराखंड का लोकपर्व सातों- आठों, जानें क्या हैं मान्यताएं, क्यों मनाते हैं लोग
अनोखा है उत्तराखंड का लोकपर्व सातों- आठों, जानें क्या हैं मान्यताएं, क्यों मनाते हैं लोग

बागेश्वर, चंद्रशेखर द्विवेदी : विहंगम हिमालयी भूभाग को शिव की भूमि माना जाता है। अलग-अलग स्थानों में शिव के कई रूपों में पूजा होती है। उनकी अर्धांगिनी पार्वती हैं। शिव और शक्ति के प्रतीक शिवलिंग का यही अर्थ है। शिव पुरुष के प्रतीक और शक्‍ति स्‍वरूपा पार्वती प्रकृति की। पुरुष और प्रकृति के बीच यदि संतुलन न हो, तो सृष्टि का कोई भी कार्य भलीभांति संपन्न नहीं हो सकता है। संसार के इसी संतुलन को बनाए रखने का पर्व है सातों-आठों। जो उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। खासकर कुमाऊं के पूर्वोत्तर भूभाग में।

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सातों-आठों पर्व एक तरीके से बेटी की विदाई का जैसा ही समारोह होता है। जिसमें माता गौरी को मायके से अपने पति के साथ ससुराल को विदा किया जाता है। इस अवसर पर गांव वाले भरे मन व नम आंखों से अपनी बेटी गमरा को जमाई राजा महेश्वर के साथ ससुराल की तरफ विदा कर देते हैं। साथ ही साथ अगले वर्ष फिर से गौरा के अपने मायके आने का इंतजार करते हैं।

पांच अनाजों से मिलकर बनते है बिरुडे

लोक पर्व सातों-आठों की शुरुआत भाद्रपद मास (अगस्त-सितंबर) की पंचमी तिथि से होती है। इसे बिरुड पंचमी भी कहते हैं । इस दिन हर घर में तांबे के एक बर्तन में पांच अनाजों मक्का, गेहूं , गहत, ग्रूस व कलू को भिगोकर मंदिर के समीप रखा जाता है। इन अनाजों को सामान्य भाषा में बिरुडे या बिरुडा भी बोला जाता है। ये अनाज औषधीय गुणों से भी भरपूर होते हैं। व स्वास्थ्य के लिए भी अति लाभप्रद होते हैं। इन्हीं अनाजों को प्रसाद के रूप में बांटा एवं खाया जाता है।

धान व सौं से बनती है आकृति गमरा

दो दिन बाद सप्तमी के दिन शादीशुदा महिलाएं पूरे दिन व्रत रखती हैं। दोपहर बाद अपना पूरा सोलह श्रृंगार कर धान के हरे भरे खेतों में निकल पड़ती हैं। धान के खेतों में एक विशेष प्रकार का पौधा ( जिसे सौं का पौधा कहते हैं ) भी उगता है। उस पौधे को महिलाएं उखाड़ लेती हैं। साथ में कुछ धान के पौधे भी।

इन्हीं पौधों से माता पार्वती की एक आकृति बनाई जाती है। फिर उस आकृति को एक डलिया में थोड़ी सी मिट्टी के बीच में स्थापित कर दिया जाता है। उसके बाद उनको नए वस्त्र व आभूषण पहनाए जाते हैं। पौधों से बनी इसी आकृति को गमरा या माता गौरी का नाम दिया जाता है।उसके बाद महिलाएं गमरा सहित डलिया को सिर पर रखकर लोकगीत गाते हुए गांव में वापस आती हैं। फिर मूर्ति स्थापना होती है।

बिरुडो से गौरा की होती है पूजा

पंचमी के दिन भिगोए गए पांचों अनाजों के बर्तन को नौले (गांव में पानी भरने की एक सामूहिक जगह) में ले जाकर उन अनाजों को पानी से धोया जाता है। फिर इन्हीं बिरुडों से माता गौरी की पूजा अर्चना की जाती है। इस अवसर पर शादीशुदा सुहागिन महिलाएं गले व हाथ में पीला धागा जिसे स्थानीय भाषा में डोर कहते हैं बांधती हैं। यह अखंड सुख-सौभाग्य व संतान की लंबी आयु की मंगल कामना के लिए बांधा जाता है।

पार्वती को मनाने अष्टमी को ससुराल पहुँचते है महेश्वर

मान्यता है कि माता गौरी भगवान भोलेनाथ से रुठ कर अपने मायके चली आती हैं। अगले दिन अष्टमी को भगवान भोलेनाथ माता पार्वती को मनाने ससुराल आते हैं। इसीलिए अगले दिन महिलाएं फिर से सज धज कर धान के हरे भरे खेतों में पहुंचती हैं। वहां से सौं और धान के कुछ पौधे उखाड़ कर उनको एक पुरुष की आकृति में ढाल दिया जाता है। महेश्वर को भी एक डलिया में रखकर उनको भी नए वस्त्र आभूषण पहनाए जाते हैं। और उस डलिया को भी सिर पर रखकर नाचते गाते हुए गांव की तरफ लाते हैं और फिर उनको माता पार्वती के समीप विधि विधान के साथ स्थापित कर दिया जाता है। गमरा व महेश्वर की पूजा होती है।

झोड़े, चांचरी, छपेली की धूम

तीन-चार दिन तक गांव में प्रत्येक शाम को खेल लगाए जाते हैं।जिसमें अनेक तरह के लोकगीत जैसे झोड़े , झुमटा, चांचरी, छपेली आदि गाए जाते हैं। महिलाएं और पुरुष गोल घेरे में एक दूसरे का हाथ पकड़कर नाचते-गाते हुए इस त्यौहार का आनंद उठाते हैं। और अपने जीवन के लिए व पूरे गांव की सुख समृद्धि व खुशहाली की कामना करते है।

नम आंखों से विदाई

उसके बाद गौरी और महेश्वर को एक स्थानीय मंदिर में बड़े धूमधाम से लोकगीत गाते व ढोल नगाड़े बजाते हुए ले जाया जाता है। जहां पर उनकी पूजा अर्चना के बाद विसर्जित कर दिया जाता है। जिस को आम भाषा में सेला या सिला देना भी कहते हैं ।

अनोखी रस्म फौल फटकना

इस अवसर पर एक अनोखी रस्म भी निभाई जाती है। जिसमें एक बड़े से कपड़े के बीचो-बीच कुछ बिरूडे व फल रखे जाते हैं। फिर दो लोग दोनों तरफ से उस कपड़े के कोनों को पकड़कर उस में रखी चीजों को ऊपर की तरफ उछालते हैं। कुंवारी लड़कियां व शादीशुदा महिलाएं अपना आंचल फैलाकर इनको इकट्ठा कर लेती हैं। यह बहुत ही शुभ व मंगलकारी माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि अगर कोई कुंवारी लड़की इनको इकट्ठा कर लेती हैं तो उस लड़की की शादी अगले पर्व से पहले-पहले हो जाती है। पर्व के समापन के बाद कई जगहों पर हिलजात्रा का भी आयोजन किया जाता है।


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