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पार्टियों ने दी नारों को अधिक तवज्‍जो, जानिए ऐसे नारों के बारे में जो लोगों की जुबां पर चढ़ गए

जनमानस तक आसानी से अपनी बात पहुंचाने का सशक्त माध्यम हैं नारे। यही कारण है कि राजनीतिक दल चुनावी माहौल शुरू होते ही कुछ नारों को गढ़ प्रोपेगैंडा शुरू करने लगते हैं।

By Skand ShuklaEdited By: Published: Thu, 04 Apr 2019 09:59 AM (IST)Updated: Thu, 04 Apr 2019 09:59 AM (IST)
पार्टियों ने दी नारों को अधिक तवज्‍जो, जानिए ऐसे नारों के बारे में जो लोगों की जुबां पर चढ़ गए
पार्टियों ने दी नारों को अधिक तवज्‍जो, जानिए ऐसे नारों के बारे में जो लोगों की जुबां पर चढ़ गए

हल्द्वानी, गणेश जोशी : जनमानस तक आसानी से अपनी बात पहुंचाने का सशक्त माध्यम हैं नारे। यही कारण है कि राजनीतिक दल चुनावी माहौल शुरू होते ही कुछ नारों को गढ़ प्रोपेगैंडा शुरू करने लगते हैं। धीरे-धीरे ये नारे आम आदमी के दिलो दिमाग पर पूरी तरह छा जाते हैं। पार्टी का प्रचार हो या फिर व्यक्ति विशेष की छवि को चमकाने की कोशिश, चुनाव आते-आते वोटरों के जेहन में ये नारे एक छवि तैयार कर लेते हैं। लोकसभा चुनाव 2019 का काउंटडाउन शुरू हो गया। हर ओर एक से बढ़कर एक नारे सुनाई देने लगे हैं। इन नारों में भाजपा, कांग्रेस से आगे नजर आ रही है।

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बनाया जाता है भावनात्मक माहौल 

कुमाऊं विश्वविद्यालय में राजनीतिक विज्ञान विभाग के प्रोफेसर बीएल साह कहते हैं, यही नारे हैं, जिनकी वजह से भावनात्मक माहौल बनाया जाता है। राजनीतिक दलों को पता होता है कि आम आदमी को कैसे अपनी ओर आकर्षित किया जाए। राजनीतिक विश्लेषक यह भी कहते हैं, भारतीय राजनीति में अक्सर यह भी देखने को मिलता है कि कई बार गंभीर मुद्दों व विकास के अहम बिंदुओं से ध्यान हटाने के लिए भी भावनात्मक नारों का सहारा लिया जाता रहा है।

चुनावों में ये चंद नारे, जिनकी रही खूब चर्चा

  • जमीन गई चकबंदी में, मकान गया हदबंदी में, द्वार खड़ी औरत चिल्लाए, मेरा मर्द गया नसबंदी में, यह नारा आपातकाल और नसबंदी अभियान के विरोध में था।
  • जली झोपड़ी भागे बैल, यह देखो दीपक का खेल, 60 के दशक में जनसंघ और कांग्रेस में नारों के जरिये खूब नोंकझोंक हुआ करती थी। तब जनसंघ का चुनाव चिन्ह दीपक था जबकि कांग्रेस का चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी थी।
  • इस दीपक में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं, जनसंघ के 'जली झोपड़ी भागे बैल यह देखो दीपक का खेलÓ नारे के जवाब में कांग्रेस का ये जवाबी नारा भी खूब प्रचलित हुआ था।
  • देश की जनता भूखी है यह आजादी झूठी है- आजादी के बाद कम्युनिस्ट नेताओं द्वारा दिया गया नारा।
  • देखो इंदिरा का ये खेल, खा गई राशन, पी गई तेल, इंदिरा के गरीबी हटाओ नारे का उनके राजनीतिक विरोधियों ने इस नारे से जवाब दिया था।
  • जगजीवन राम की आई आंधी, उड़ जाएगी इंदिरा गांधी,  आपातकाल के दौरान यह नारा भी प्रचलित रहा था।
  • उठे करोड़ों हाथ हैं, राजीव जी के साथ हैं, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुआ आम चुनाव में ये नारा गूंजा था।
  • सौगंध राम की खाते हैं हम मंदिर वहीं बनाएंगे, ये तो पहली झांकी है, काशी मथुरा बाकी है, रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे, राम मंदिर आंदोलन के दौर में भाजपा और संघ का नारा था।
  • सबको देखा बारी-बारी, अबकी बार अटल बिहारी, 1996 में भाजपा द्वारा दिया गया नारा।
  • रोटी, कपड़ा और मकान, मांग रहा है हिंदुस्तान, समाजवादी नेताओं द्वारा दिया गया नारा।
  • चलेगा हाथी उड़ेगी धूल, ना रहेगा हाथ, ना रहेगा फूल, बसपा का एक नारा।
  • अबकी बार मोदी सरकार, 2014 लोकसभा चुनाव में भाजपा द्वारा दिया गया नारा।
  • कट्टर सोच नहीं युवा जोश, 2014 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस द्वारा दिया गया नारा।
  • अबकी बार, 400 पार, मोदी है तो मुमकिन है, मैं भी चौकीदार भाजपा ने 2019 के लिए इस तरह के कई नारे प्रचारित किए हैं। वहीं कांग्रेस ने मैं भी बेरोजगार, चौकीदार चोर है आदि नारे के जरिये प्रचार तेज किया है।

नारों का प्रभाव अधिक पड़ता है

प्रो. बीएल शाह, राजनीतिक विज्ञान विभाग, कुविव‍ि ने बताया कि चुनावों में नारों का बहुत अधिक प्रभाव रहता है। पूरा प्रजेंटेशन होता है। इन्हीं नारों को राजनीतिक दलों का कैच लाइन कहा जाता है। पार्टी व नेता की पूरी छवि बनाने के लिए अपनी बात को एक वाक्य में पहुंचाने के लिए नारों का प्रयोग अक्सर होता आया है।

मानस पटल पर अंकित हो जाते हैं नारे

डॉ. युवराज पंत, मनोवैज्ञानिक ने कहा कि बड़ी-बड़ी बातें याद नहीं रहती हैं। लंबे और लच्छेदार भाषणों से लोग बोर हो जाते हैं, लेकिन जब उनके सामने छोटे-छोटे वाक्य नारों के रूप में सामने आते हैं तो वह लोगों के दिलोदिमाग में छा जाते हैं। राजनीतिक दल भी लोगों की मनोभावनाओं को समझते हुए इसे नारों को प्रचारित करती हैं।

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