प्रकृति पूजन का लोकपर्व हरेला कल, जानिए उत्तराखंड के इस अनोखे लोक पर्व के बारे में
प्रकृति पूजन का प्रतीक हरेला लोक पर्व गुरुवार को मनाया जाएगा। कुमाऊं में हरेले से ही श्रावण मास और वर्षा ऋतु का आरंभ माना जाता है।
हल्द्वानी, गणेश पांडे : प्रकृति पूजन का प्रतीक हरेला लोक पर्व गुरुवार को मनाया जाएगा। कुमाऊं में हरेले से ही श्रावण मास और वर्षा ऋतु का आरंभ माना जाता है। हरेले के तिनकों को इष्ट देव को अर्पित कर अच्छे धन-धान्य, दुधारू जानवरों की रक्षा और परिवार व मित्रों की कुशलता की कामना की जाती है। हरेले की पहली शाम डेकर पूजन की परंपरा भी निभाई जाती है।
पांच, सात या नौ अनाजों को मिलाकर हरेले से नौ दिन पहले दो बर्तनों में उसे बोया जाता है। जिसे मंदिर के कक्ष में रखा जाता है। इस दौरान हरेले को जरूरत के अनुरूप पानी दिया जाता है। दो से तीन दिन में हरेला अंकुरित होने लगता है। सूर्य की सीधी रोशन से दूर होने के हरेला यानी अनाज की पत्तियों का रंग पीला होता है। श्री महादेव गिरि संस्कृत महाविद्यालय के प्राचार्य डाॅ. नवीन चंद्र जोशी बताते हैं कि पीला रंग उन्नति और संपन्नता का द्योतक है। हरेले की मुलायम पंखुड़ियां रिश्तों में धमुरता, प्रगाढ़ता प्रदान करती हैं। परिवार को बुजुर्ग सदस्य हरेला काटता है और सबसे पहले गोलज्यू, देवी भगवती, गंगानाथ, ऐड़ी, हरज्यू, सैम, भूमिया आदि देवों को अर्पित किया जाता है। इसके बाद परिवार की बुजुर्ग महिला व दूसरे वरिष्ठजन परिजनों को हरेला पूजते हुए आशीर्वचन देते हैं।
मिट्टी से बनते हैं डेकर
हरेले से पहली शाम डेकर यानी श्री हरकाली पूजन होता है। घर के आंगन से शुद्ध मिट्टी लेकर शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय आदि की छोटी मूर्तियां तैयार की जाती हैं। उन्हें रंगने के साथ बाकायदा श्रृंगार किया जाता है। संस्कृति कर्मी रेनू जोशी बताती हैं कि डेकरे बनाने का उत्साह गजब का होता है। बच्चे तो उत्सुकता के साथ मूर्तिया बनाने लगते हैं। हरेले के सामने शिव-पार्वती का पूजन कर धन-धान्य की कामना की जाती है। हरकाली पूजन में पुवे-प्रसाद, फल आदि का भोग लगाया जाता है। हरेले की गुड़ाई की जाती है। संस्कृतज्ञ डाॅ. नवीन चंद्र जोशी बताते हैं कि पहले से सामूहिक रूप से डेकर पूजन की परंपरा रही है। मोहल्ले और गांव के लोग एक साथ डेकर पूजन करते थे। बाद में प्रतीकात्मक रूप से घरों में पूजन किया जाने लगा।
अद्भुत हैं आशीर्वचन के बोल
हरेला पूजन के समय आशीष देने की परंपरा है। इसके बोल काफी समृद्धता और व्यापकता लिए हुए हैं। परिवारों के बुजुर्गों से इसे सुनने वाले छोटे बच्चे कई दिनों तक इन्हें गुनगुनाते रहते हैं। रेनू जोशी बतातीं हैं कि आज लोग पहाड़ों से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। इंग्लिश मीडियम में पढ़ने वाले बच्चे कुमाऊंनी भाषा बोलने में संकोच करते हैं। माता-पिता घर में अपनी बोली-भाषा में बात करनी चाहिए और बच्चों को भी अपनी मात्रभाषा का ज्ञान कराना चाहिए।
जी रये जागि रये
यो दिन-मास-बार भेटनै रये
धरती जस आगव, आकाश जस चाकव होये
सियक जस तराण, स्यावे जसि बुद्धि हो
दूब जस पंगुरिये
हिमालय में ह्यो, गंगा ज्यू में पाणी रौन तक बचि रये
सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये
गीत का अर्थ जानिए
तुम जीते रहो और जागरूक बने रहो, हरेले का यह दिन-बार-माह तुम्हारे जीवन में आता रहे। धरती जैसा विस्तार और आकाश की तरह उच्चता प्राप्त हो। सिंह जैसी ताकत और सियार जैसी बुद्धि मिले। वंश-परिवार दूब की तरह पनपे। हिमालय में हिम और गंगा में पानी बहने तक इस संसार में तुम बने रहो।
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