वनाग्नि के जनक पिरूल से पार पाने में मिली बड़ी कामयाबी, जानिए क्या
शोध व अध्ययन के बाद वैज्ञानिकों ने चीड़ की पत्तियों से सिर्फ कोयला ही नहीं बनाया है बल्कि पर्यावरणीय पहलुओं के मद्देनजर राखी कार्ड और स्टेशनरी भी बना डाली।
दीप सिंह बोरा, अल्मोड़ा। वनाग्नि के लिहाज से घातक चीड़ की पत्ती यानी पिरूल से पार पाने को वैज्ञानिकों ने बड़ी जीत हासिल कर ली है। तीन वर्ष के सतत शोध व अध्ययन के बाद वैज्ञानिकों ने चीड़ की पत्तियों से सिर्फ कोयला ही नहीं बनाया है, बल्कि पर्यावरणीय पहलुओं के मद्देनजर राखी, कार्ड और स्टेशनरी भी बना डाली। इस अभिनव प्रयोग से जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण शोध एवं विकास संस्थान कोसी कटारमल को देश के अग्रणी संस्थानों में ला खड़ा किया है। अब वैज्ञानिक बेकार समझे जाने वाले इस पिरूल से ऐसे उत्पाद बनाने की तैयारी में हैं जो पर्यावरण सुरक्षा के मूल्यों के आधार पर अंतरराष्ट्रीय बाजार में जगह बना सकें। राज्य सरकारें पिछले डेढ़ दशक से पिरूल के निस्तारण के लिए कोयला व बिजली उत्पादन की योजनाएं बनाती आ रही। इधर, राष्ट्रीय हिमालयी मिशन के केंद्र जीबी पंत हिमालयी पर्यावरण शोध एवं विकास संस्थान (अल्मोड़ा) के वैज्ञानिक सतत शोध के बाद चीड़ की पत्तियों का बेहतर इस्तेमाल कर पर्यावरणीय दुष्प्रभाव कम करने में कामयाब हो गए हैं। वैज्ञानिकों ने न केवल पिरूल प्रसंस्करण इकाई स्थापित कर ली है, बल्कि कई उत्पाद भी बनाए जाने लगे हैं।
केंद्रीय वन मंत्रालय तक पहुंचे पिरूल से निर्मित शादीकार्ड
इस वर्ष पिरूल पर अभिनव प्रयोग की धमक केंद्रीय वन मंत्रालय तक भी पहुंची। हालिया संस्थान के एक वैज्ञानिक की शादी के कार्ड पिरूल से ही बने। केंद्रीय मंत्रालय को न्यौता इन्हीं हस्तनिॢमत पीरूल के कार्डों के जरिये भेजा गया।
संस्थान उपयोग में लाने लगा स्टेशनरी
संस्थान परिसर में पिरूल से महिलाएं व बेरोजगार युवा राखी, आर्टीफिशियल मालाएं, ऑफिस स्टेशनरी में फाइल कवर, गत्ते, कैरी बैग आदि उत्पाद वैज्ञानिकों की निगरानी में तैयार कर रहे हैं। पिरूल से बने रजिस्टर, फाइलें आदि संस्थान उपयोग में लाने भी लगा है।
परियोजना ने स्वरोजगार के द्वार भी खोले
यह काम आसान हुआ है मध्य हिमालय में प्राकृतिक संसाधनों के एकीकृत विकास सुधार विषय पर संचालित राष्ट्रीय हिमालयी अध्ययन मिशन की अनुदान की परियोजना से। शोध सफल होने के बाद वैज्ञानिकों ने हवालबाग ब्लॉक के करीब 10 गांवों की महिलाओं व युवाओं को बाकायदा स्वरोजगार से भी जोड़ा है।
दिल्ली से मिली पिरूल पत्तल की डिमांड
संस्थान के ग्रामीण तकनीकी परिसर में बहुत जल्द मालू के पत्तों से बने पत्तल की ही तरह पिरूल की थाली भी बनने लगेगी। महिलाओं को इसके प्रशिक्षण दिया जा रहा है। दिल्ली की एक कंपनी ने डिमांड भी भेज दी है।
470 परिवार स्वरोजगार से जुड़े
हवलबाग ब्लॉक के ग्वालाकोट, दाङ्क्षडमखोला, सकनियाकोट, भलगाढ, सकार, च्यूला, तिलोरा, पिथरार गांव के करीब 470 से अधिक परिवार कोयला व अन्य उत्पाद बना लाभांवित हो रहे।
ऐसे बनता है कागज व कार्ड
चीड़ की पत्तियों से कागज बनाने के लिए इसका रेजिन निकालना पड़ता है। पत्तियों को कई टुकड़ों में काट कर पीसते हैं। उसे लचीला बनाने के लिए 80 किलो पीरूल में 20 किलो सूत मिलाया जाता है। फिर खूब पकाने के बाद गूंथ कर लुगदी बनाई जाती है। जिसे हैंडमेड पेपर मशीन पर कंप्रैस कर कागज, गत्ता या फाइल कवर तैयार किए जाते हैं। डॉ. आरसी सुंदरियाल, वरिष्ठ वैज्ञानिक व परियोजना प्रमुख ने बताया कि पिरूल से कैरीबैग, राखी व स्टेशनरी आदि उत्पाद बनाने वाला हमारा पहला परिसर है। जो उत्पाद हम बना रहे वह महंगा है या सस्ता, यह मायने नहीं रखता। उनकी पर्यावरणीय कीमत, महत्व बहुत च्यादा है। कोशिश है कपड़ों की तरह पिरूल पेपर की नई व उम्दा वैरायटी तैयार करें, ताकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में मांग बढ़े। आज लोग जैसे जैविक सब्जियां महंगी होने के बावजूद खरीदते हैं, वैसे ही पर्यावरण से प्रेम करने वाले भी पिरूल के उत्पाद खरीदेंगे। पिरूल जंगलों में पड़ा रहेगा तो जलेगा। इससे ग्रीन हाउस गैस पर्यावरण को क्षति पहुंचाएंगी।
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