स्मार्टफोन ने छीनी मासूमों की 'आवाज', खोता जा रहा बचपन NAINITAL NEWS
पानी में अब कागज की कश्तियां नहीं उतरती और न ही गलियों में बच्चों की चहल-पहल होती है। तकनीकी के इस दौर में बच्चे अब एक ही कमरे में कैद होकर रह गए हैं।
शहबाज अहमद, हल्द्वानी । पानी में अब कागज की कश्तियां नहीं उतरती और न ही गलियों में बच्चों की चहल-पहल दिखती है। तकनीकी के इस दौर में बच्चे अब एक ही कमरे में कैद होकर रह गए हैं। गलाकाट प्रतिस्पर्धा में अधिक से अधिक मार्क्स लाना ही एकमात्र लक्ष्य बन गया है। अभिभावकों की यही जिद उनकी मासूमियत छीन रही है। शेष जिंदगी डिजिटल स्क्रीन और सोशल मीडिया तक सिमट गई है। मनोवैज्ञानिक व समाजशास्त्री इस तरह की बढ़ती स्थिति पर चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं कि बेहतर भविष्य के लिए बच्चों को खुलकर जीने का मौका दें। गैजेट्स ने छीनी अपनेपन की चाहत परिवार की बदलती संरचना से बच्चों के पालन-पोषण का तरीका भी बदल गया है। हाईटेक जमाने में स्मार्टफोन बच्चों की भी लाइफस्टाइल का हिस्सा बन गया है। इनकी देखभाल के लिए माता-पिता पूरी तरह से स्मार्टफोन पर ही निर्भर हो गए हैं, जहां बच्चों को सुबह से लेकर रात तक गैजेट्स का सहारा लेना पड़ रहा है, वहीं इसके दुष्प्रभाव भी देखने को मिल रहे हैं। व्यस्तता के चलते बच्चों की देखभाल ठीक ढंग से नहीं हो पाती है।
डॉ. युवराज पंत साइकोलॉजिस्ट, एसटीएच का कहना है कि माता-पिता के नौकरी करने से घर में बच्चे को अकेलापन न महसूस हो, इसके लिए अभिभावक क्रेच (बच्चों का पालन-पोषण केंद्र) का सहारा ले रहे हैं। यही नहीं नौनिहाल को मोबाइल देकर वे उनकी बोलने की क्षमता भी छीन रहे हैं। डॉ. अंशुलिका उपाध्याय, एचओडी बायोटेक्नोलॉजी एमबीपीजी ने बताया कि अभिभावक बच्चों को मोबाइल न देकर खुद एक दोस्त जैसा व्यवहार रखें। अभिभावक अपने बच्चों पर कभी भी किसी प्रकार का दबाव न बनाएं। उनकी समय-समय पर मॉनीट¨रग भी करें और उनकी हर एक बात को पूरा ध्यान देकर सुनें।
केस:1 तिकोनिया के चार साल बच्चे को उसके अभिभावक अस्पताल लेकर पहुंचे। वह हष्ट-पुष्ट था। उसमें किसी तरह की कमी नहीं दिख रही थी, मगर वह बोल नहीं सकता है। चेकअप और काउंसलिंग के बाद डॉक्टर ने बताया कि बच्चे को मोबाइल से खेलने की आदत पड़ गई थी, जिससे मुख्य संवाद न होने से उसकी बोलने की आदत विकसित नहीं हो सकी थी।
केस:2 काशीपुर से इलाज के लिए अभिभावकों के साथ पहुंचा करीब छह साल बच्चा भी मोबाइल फोन से खेलने का लती था। उसके माता-पिता का कहना था कि वह पूरे दिन इसी में व्यस्त रहता था। मोबाइल छीनने पर रोता और गुस्सा भी करता था। इससे वह अपने आस-पास के बच्चों के साथ घुल-मिल नहीं पाता था। दिनभर वह अकेला ही रहता था।
एनआरआइ भी आए इलाज कराने
डॉ. युवराज पंत का कहना है कि अमेरिका, इंग्लैंड और कनाडा में रहने वाले हल्द्वानी के एनआरआइ भी अपने बच्चों के सही समय से नहीं बोलने से परेशान थे। इनमें से कई ने उनसे सलाह ली तो उनसे बात करने पर पता चला कि माता-पिता दोनों ही नौकरी करते हैं। अकेलापन दूर करने के लिए उन्होंने बच्चों को मोबाइल व टीवी पर निर्भर कर दिया। इससे मौखिक संवाद नहीं होने से बच्चे को बोलने में परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
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