शोध में चौकाने वाला तथ्य आया सामने, मध्य हिमालयी क्षेत्र में विलुप्त हो गईं 25 फसलें
कुमाऊं हिमालय के बलिया बेसिन के जलवायु परिवर्तन पर शोध में चौंकाने वाला मामला सामने आया। परंपरागत कृषि खाद्य सुरक्षा व लोगों की सेहत पर असर पाया गया है। औसत तापमान में एक डिसे तक का अंतर होने के साथ ही वर्षा में चार मिमी तक की वृद्धि पाई गई।
रुद्रपुर, बृजेश पांडेय : कुमाऊं हिमालय के बलिया बेसिन के जलवायु परिवर्तन पर शोध हुआ तो चौंकाने वाला मामला सामने आया। परंपरागत कृषि, खाद्य सुरक्षा व लोगों की सेहत पर असर पाया गया है। यहीं नहीं औसत तापमान में एक डिग्री सेल्सियस तक का अंतर होने के साथ ही वर्षा में चार मिमी तक की वृद्धि पाई गई। 25 फसलों की प्रजातियां विलुप्त हो गई है। कुछ फसल समय से पहले ही तैयार हो जा रही हैं। जिसका असर उत्पादन पर भी पड़ रहा है। परंपरागत कृषि में करीब 91 फीसद तक परिवर्तन के साथ ही समाप्त हो चुके हैं। इस पर विज्ञानी भूगोलवेत्ताओं ने चिंता जताई है।
शहीद भगत सिंह राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के भूगोल विभाग के छात्र मोहन ङ्क्षसह सम्मल ने विभागाध्यक्ष डॉ. भगवती जोशी के दिशा निर्देशन में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव मानवीय कृषि, खाद्य सुरक्षा एवं मानवीय स्वास्थ्य पर पडऩे वाले प्रभाव विषय पर शोध किया है। शोध का अवार्ड छात्र को सोमवार को दिया गया। बताया जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव मानव जीवन, जीवन शैली तथा परंपरागत कृषि पर शोध कर नई विद्या तथा ज्ञान खोज को करने वाला पहला शोध है। मध्य हिमालयी भाग में फैली करीब 82 स्क्वॉयर किलोमीटर बलिया बेसिन अत्यधिक संवेदनशील भौगोलिक इकाई (मध्य व शिवालिक हिमालय) है। शोध रिपोर्ट के मुताबिक इन क्षेत्रों से धान, जौ, मक्के व वन्य फसलों की कई प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं।
यही नहीं यहां के रहन सहन के हिसाब से लोगों ने जल्द तैयार होने वाली फसलों को तवज्जों दे रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार इस तरह के फसल से न सिर्फ महिलाओं के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है, बल्कि एक साल में कई फसल लेने से मृदा की सेहत खराब हो रही है। जबकि पहले खेती के बाद छह माह खेत को खाली छोड़ दिया जाता था, लेकिन अब हर दो से तीन माह पर मक्का, सब्जी आदि फसल ली जा रही है। परंपरागत खेती के बजाय हाईटेक खेती करने से फसलों में बीमारियां फैल रही हैं।भूमि उपयोग योजना नीति को तैयार करनी चाहिए।
यह बता रही शोध रिपोर्ट
- प्रथम रिपोर्ट में मध्य हिमालयी भू-भाग के अध्ययन क्षेत्र में औसत तापमान में लगभग एक डिग्री सेल्सियस की कमी।
- वर्षा की मात्रा में चार मिमी तक की वृद्वि एवं वर्षा के दिनों की संख्या में औसतन 46 दिनों की कमी पाई गई।
- लगातार होने वाली वर्षा चार से छह दिन पूर्व बंद होना।
- हिमपात का न होना
इन्होंने शोध को किया पूर्ण
शोध कार्य को पूर्ण करने में भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद, दिल्ली, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग शोध परियोजना व अंतरराष्ट्रीय शोध परियोजना जिसमें एशिया पैसिफिक नेटवर्क, इंटरनेशनल वाटर मैंनेजमेंट इंस्टीट्यूट की शोध अध्येयता वृत्तियॉ प्रदान की गई है।
ये फसलें हुई विलुप्त
सफेद मक्का, गहत की दाल, भट्ट, चनौसी, सकमत्ता, नागरकोटी, लाल धान, अंजना, के-22, ज्वार, बाजरा, मंडुआ, कौसी।
ये भी विलुप्त
जेठी, तरुण, किउला, कचनार, गूलर, करूआ, कुकुराछा, बिच्छू घास, किगुड़ा आदि।
शोध को पांच वर्ष चार माह में पूरा किया गया
विभागाध्यक्ष डॉ. भगवती जोशी ने बताया कि इस शोध को पांच वर्ष चार माह में पूरा किया गया। 14 अक्टूबर 2014 को शोध कार्य प्रारंभ किया गया था। जबकि यह नौ जनवरी 2020 को पूरा हुआ। डाक्टर मोहन सिंह सम्मल, शोधकर्ता ने बताया कि इस शोध को पूरा करने में करीब साढे पांच वर्ष लगे हैं। रिपोर्ट में कई बातें चौकाने वाली सामने आई हैं। जिसमें कृषि पर और जलवायु प्रमुख हैं। रिपोर्ट के आधार पर भविष्य की संभावनाओं का आंकलन कर पूर्व तैयारियां कर चलना होगा।