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जंगल की बात : आइए, संकल्प लें कि हम कम से कम पांच पौधे लगाकर करेंगे उनका संरक्षण

उत्तराखंड में भी जंगलों से लेकर गांव-शहरों तक पौधारोपण की तैयारियां होने लगी हैं। मेघों के बरसने पर पौधारोपण का क्रम शुरू होगा। आइए संकल्प लें कि हम अपने जीवनकाल में कम से कम पांच पौधे लगाकर उनका संरक्षण करेंगे।

By Sunil NegiEdited By: Published: Sat, 25 Jun 2022 04:44 PM (IST)Updated: Sat, 25 Jun 2022 04:44 PM (IST)
जंगल की बात : आइए, संकल्प लें कि हम कम से कम पांच पौधे लगाकर करेंगे उनका संरक्षण
उत्तराखंड में वन विभाग ने पौधारोपण की तैयारियां शुरू कर दी हैं। जागरण आर्काइव

केदार दत्त, देहरादून। चौतरफा हरियाली और हरे-भरे जंगल भला किसे नहीं सुहाते। हमारे आसपास पेड़-पौधे होंगे, हरियाली होगी तो आबोहवा भी बेहतर होगी। स्वच्छ प्राणवायु होगी तो तमाम रोग-व्याधियों से भी निजात मिलेगी।

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आवश्यकता है, हरियाली को लेकर थोड़ा सा संवेदनशील होने की। वैसे भी शास्त्रों में उल्लिखित है कि एक पेड़ सौ पुत्रों के समान होता है। अगर हम पौधों का रोपण कर संतान की भांति इनका संरक्षण करेंगे तो आने वाली पीढ़ी इससे लाभान्वित होगी।

अब जबकि मानसून आने को है तो उत्तराखंड में भी जंगलों से लेकर गांव-शहरों तक पौधारोपण की तैयारियां होने लगी हैं। मेघों के बरसने पर पौधारोपण का क्रम शुरू होगा। बस, हमें दृढ़संकल्पित होकर अपनी जिम्मेदारी को ठीक से निभाना होगा।

तो आइए, संकल्प लें कि हम अपने जीवनकाल में कम से कम पांच पौधे लगाकर उनका संरक्षण करेंगे। यह, पर्यावरण के प्रति हमारी सजगता को दर्शाएगा ही भविष्य में बेहतर आबोहवा की नींव भी रखेगा।

फूलों की घाटी का दीदार

नैसर्गिक सुंदरता से परिपूर्ण उत्तराखंड को प्रकृति ने मुक्त हाथों से नेमत दी हैं। जंगल, नदी-झरने, हिमाच्छादित चोटियां, घाटियां, मैदान आखिर ऐसा क्या नहीं है, जो प्रकृति ने यहां नहीं दिया है। प्रकृति के इन मनोरम दृश्यों से कौन साक्षात्कार नहीं करना चाहेगा।

अब विश्व धरोहर में शामिल फूलों की घाटी को ही ले लीजिए। समुद्रतल से 13 हजार फीट की ऊंचाई पर 87.5 वर्ग किलोमीटर में फैली इस घाटी में फूलों का रंग-विरंगा संसार हर किसी को मोहपाश में बांध लेता है। पांच सौ से ज्यादा प्रजातियों के फूल यहां खिलते हैं।

घाटी की जैव विविधता भी बेजोड़ है। इन दिनों प्रकृति प्रेमी फूलों की घाटी के मनोरम दृश्यों से आनंदित हो रहे हैं। यह स्वाभाविक भी है, लेकिन एक बात अवश्य ध्यान में रखनी होगी कि मानवीय हस्तक्षेप इस प्रकार से हो, जिससे घाटी की सुंदरता को कोई नुकसान न पहुंचे। यह सजगता हर स्तर पर आवश्यक है।

जंगलों तक न पहुंचे कूड़ा-कचरा

उत्तराखंड में शहरों, गांवों से प्रतिदिन निकलने वाले कूड़े-कचरे का निस्तारण पहले ही चुनौती बना है और अब इसने जंगल के लिए भी मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। वन क्षेत्रों के आसपास फेंके जा रहे कूड़े-कचरे में आसान भोजन की तलाश में जंगली जानवर भी पहुंच रहे हैं।

कचरे में आए प्लास्टिक-पालीथिन से जंगल की सेहत पर तो बुरा प्रभाव पड़ ही रहा, वन्यजीव भी इसे खा रहे हैं। राजाजी और कार्बेट टाइगर रिजर्व के मध्य में स्थित हरिद्वार एवं लैंसडौन वन प्रभागों में हुए शोध अध्ययन के दौरान हाथियों के मल में पालीथिन-प्लास्टिक, कांच के टुकड़े, तार के टुकड़े तक पाए गए।

बात सामने आई कि ये सब हाथियों को जंगल के नजदीक फेंके कचरे से मिला, जिसे भोजन समझकर उन्होंने खा लिया। इस सबको देखते यह सुनिश्चित करना होगा कि जंगलों तक कूड़े-कचरे के रूप में पालीथिन-प्लास्टिक आदि न पहुंचे। इसके लिए प्रभावी रणनीति बनाकर आगे बढऩा होगा।

झोलियां भी भर रही गर्तांगली

उत्तराखंड की वादियां हमेशा से प्रकृति प्रेमियों के साथ ही रोमांच के शौकीनों के लिए आकर्षण का केंद्र रही हैं। ट्रैकिंग और चोटियों का आरोहण तो साहसिक पर्यटन की मुख्य धुरी है।

अब गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान में स्थित गर्तांगली को ही ले लीजिए। एक दौर में भारत-तिब्बत के मध्य व्यापार के मुख्य मार्ग पर स्थिति यह गली विश्व के दुर्गम रास्तों में शामिल है। इससे गुजरना अपने आप में रोमांचकारी है। पूर्व में यह गली जर्जर हो गई थी। लंबी प्रतीक्षा के बाद इसका पुनर्निर्माण हुआ तो इसका अनुभव लेने के लिए मारामारी सी मच गई।

जीर्णोद्धार के बाद नौ सितंबर 2021 को इसे सैलानियों के लिए खोला गया। तब से अब तक 11 हजार से अधिक पर्यटक गर्तांगली का भ्रमण कर चुके हैं। इससे वन विभाग को 16 लाख से अधिक का राजस्व भी मिला है। साफ है कि यह गली आने वाले दिनों में भी झोलियां खूब भरेगी।


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