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नजराना जो न बन सका नजीर, ये फसाना अब तक रहा हर सरकार का

उत्तराखंड ने राज्य बनने के बाद कई प्रयोग देखे हैं। ऐसे भी प्रयोग हुए जिसमें बातें तो जोरशोर से नजीरें बनाने की हुईं लेकिन हकीकत की जमीन पर ये औंधे मुंह गिर पड़ीं।

By Sunil NegiEdited By: Published: Thu, 06 Feb 2020 02:14 PM (IST)Updated: Thu, 06 Feb 2020 02:14 PM (IST)
नजराना जो न बन सका नजीर, ये फसाना अब तक रहा हर सरकार का
नजराना जो न बन सका नजीर, ये फसाना अब तक रहा हर सरकार का

देहरादन, रविंद्र बड़थ्वाल। उत्तराखंड ने राज्य बनने के बाद कई प्रयोग देखे हैं। ऐसे भी प्रयोग हुए, जिसमें बातें तो जोरशोर से नजीरें बनाने की हुईं, लेकिन हकीकत की जमीन पर ये औंधे मुंह गिर पड़ीं। ये फसाना अब तक हर सरकार का रहा है। इसमें फंसने-फंसाने का खेल तब ही चालू होता है, जब मामला दूसरी सरकार के हाथ में आ जाए। अल्मोड़ा जिले के नैनीसार में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के निजी आवासीय स्कूल की चाह में पिछली कांग्रेस सरकार ने दिल्ली की एक संस्था को 7.06 हेक्टेयर भूमि दे दी। साथ में भूमि का चार करोड़ से ज्यादा नजराना माफ कर डाला। स्कूल अब तक नहीं बना। मौजूदा सरकार ने राजस्व महकमे से जांच करा दी। जांच में बताया गया, भूमि देने से पहले ग्राम सभा से प्रस्ताव पास नहीं कराया गया। कैबिनेट की मंजूरी के बगैर भूमि का नजराना माफ किया। लिहाजा सरकार  मामले पर दोबारा विचार शुरू कर रही है।

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अध्यक्ष गैर मौजूद, हो गए फैसले

बताइये, अब अपील कहां की जाए। ठेल-ठाल कर चल रहा अपीलीय प्राधिकरण भी अब ठप पड़ गया है। लंबे संघर्षों का नतीजा है कि प्रवेश एवं शुल्क नियामक समिति भी बनी, उससे ऊपर अपीलीय प्राधिकरण का जम-जमाव हो गया। दोनों अद्र्ध न्यायिक संस्थाओं के अध्यक्ष पदों पर हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज रखे जाने का प्रविधान है। दोनों ही संस्थाओं में अध्यक्ष नहीं हैं। निजी पाठ्यक्रमों की फीस तय करने और फीस को लेकर यदि विवाद खड़ा होता है तो उसके निपटारे का काम भी अब नहीं होगा। अपीलीय प्राधिकरण के पास अध्यक्ष नहीं है, लेकिन किसी तरह प्राधिकरण के कामकाज को सरकार घसीटती रही। गौर फरमाएंगे तो अध्यक्ष की गैर मौजूदगी में बड़े फैसले भी हो गए। फीस देनी या नहीं, कितनी देनी है, जैसे फैसले तड़ातड़ ले लिए गए। विरोध करने वाले एक्ट की दुहाई दे रहे हैं। भई, जब अध्यक्ष ही नहीं है तो कैसे ले लिए फैसले।

अब ऑनलाइन अटक रहे हैं प्रस्ताव

गुड गवर्नेंस। यानी फाइलों का बेरोकटोक मूवमेंट। डिजिटल इंडिया के दौर में आखिर कागजी फाइलों को कितना और कब तक ढोया जाए। सरकार के मुखिया ने फरमान सुनाया। अब से ई-कैबिनेट और सचिवालय में ई-ऑफिस। दनादन डिजीटल उपकरणों की खरीदारी। सचिवालय के अनुभागों तक डिजीटल तकनीक की धमक। कर्मचारियों, नौकरशाहों से लेकर मंत्रियों ने ट्रेनिंग ली। फिलहाल तकनीक तो दौड़ रही है। साहब और मंत्री दौड़ में पीछे हैं। 19 सालों से हर कैबिनेट में लगने वाले पहले प्रस्तावों और फिर फैसलों के अंबार अब थमा-थमी के दौर में हैं। चाहे दफ्तर हों या मंत्रालय, कैबिनेट में रखे जाने वाले प्रस्ताव ऑनलाइन ही पहुंचने हैं। बार-बार ट्रेनिंग के बाद भी तकनीक के सिरे फिसले ही जा रहे हैं। छोटे से लेकर बड़े साहब सभी परेशानहाल हैं। जो प्रस्ताव कभी बड़े साहब और मंत्री साहिबान की जेब से होते हुए कैबिनेट की अनुकंपा पा जाते थे, अब ऑनलाइन अटके पड़े हैं।

भर्तियों का मौका, महकमा भी अलर्ट

प्रदेश में निजी विद्यालयों को सरकारी अनुदान दिलाने और फिर अनुदानप्राप्त विद्यालयों में शिक्षकों और कर्मचारियों के रिक्त पदों पर भर्ती खोलने, दोनों सूरतेहाल में जोर सरकार का ही चलता है। इस जोर में अक्सर अव्वल वो ही आते हैं, जो रसूखदार हों। यह रसूख जनता जनार्दन से लेकर सत्ता प्रतिष्ठान तक होना बेहद जरूरी है। ऐसी अनुकूल स्थितियों में ही कार्यसिद्धि योग बनते हैं।

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मामला स्थितियों को अनुकूल बनाने का होता है, लिहाजा योग साधना जहां तक संभव हो, गुपचुप रहती है। शोर तब ही फूटता है, जब साधकों में किसी तरह विवाद हो जाए। ऐसे में फर्जीवाड़ा सामने आने की संभावनाएं ज्यादा रहती हैं। सहायताप्राप्त अशासकीय विद्यालयों को इस वजह से बीते वर्षों में नियुक्तियों में घपले की जांच से गुजरना पड़ा है। चुनाव आचार संहिता के चलते ठप पड़ी भर्तियां एक बार फिर शुरू हो गई हैं। साधक फिर सक्रिय हैं। इस दफा महकमा भी अलर्ट है।

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