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    कार्बेट नेशनल पार्क में ही खतरे में हैं बाघ, सवाल तो उठेंगे ही

    विश्व प्रसिद्ध कार्बेट नेशनल पार्क में ही बाघ खतरे में हैं। प्रश्न उठता है कि कार्बेट में ऐसी नौबत क्यों आई और इसके लिए कौन जिम्मेदार है।

    By Edited By: Updated: Sun, 26 Aug 2018 11:15 AM (IST)
    कार्बेट नेशनल पार्क में ही खतरे में हैं बाघ, सवाल तो उठेंगे ही

    देहरादून, [राज्य ब्यूरो]: देश में बाघों की सुरक्षित पनाहगाह माने जाने वाले विश्व प्रसिद्ध कार्बेट नेशनल पार्क में ही बाघ खतरे में हैं। पिछले कुछ सालों में वन्यजीव प्रबंधन में हीलाहवाली, शिकारियों-तस्करों पर नकेल कसने में कोताही के साथ ही वन्यजीवों के स्वछंद विचरण में खलल जैसे मामलों में सरकार, शासन और पार्क प्रशासन की अनदेखी के कारण ही अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा है। सूरतेहाल, प्रश्न उठता है कि कार्बेट में ऐसी नौबत क्यों आई और इसके लिए कौन जिम्मेदार है।

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    वर्ष 1936 में अस्तित्व में आए कार्बेट नेशनल पार्क को देश का पहला नेशनल पार्क होने का गौरव प्राप्त है। वर्ष 1973-74 में प्रोजेक्ट टाइगर प्रारंभ होने के बाद यहां बाघ संरक्षण के प्रयासों में तेजी आई और इसके बेहतर नतीजे भी आए। बाघों के घनत्व के मामले में कार्बेट आज भी देश में अव्वल है। यही नहीं, बाघों की संख्या के लिहाज से 361 बाघों के साथ उत्तराखंड देश में दूसरे स्थान पर है।

    बावजूद इसके बाघ समेत दूसरे वन्यजीवों के संरक्षण को लेकर पिछले कुछ सालों से बरती जा रही हीलाहवाली ने खतरे की आहट दे दी थी। यह ठीक है कि बाघ बढ़ गए हैं, लेकिन इनकी सुरक्षा की चुनौती से आज भी पार नहीं पाई जा सकी है। वह भी तब जबकि कुख्यात बावरिया समेत दूसरे शिकारी व तस्कर गिरोह यहां के बाघों पर गिद्धदृष्टि गड़ाए हुए हैं। 

    आलम यह है कि शिकारी और तस्कर पार्क के सबसे महफूज माने जाने वाले कोर जोन में घुसकर अपनी करतूतों को अंजाम दे देते हैं और सिस्टम बाद में लकीर पीटता रह जाता है। यह जानते हुए भी कि कार्बेट समेत राज्यभर में बावरियों के पांच गिरोह सक्रिय हैं, फिर भी इन पर नकेल नहीं कसी जा सकी है। और तो और, यहां सक्रिय शिकारियों व तस्करों का डेटाबेस बनाने की मुहिम भी कहीं नेपथ्य में चली गई है। 

    सुरक्षा के मद्देनजर सघन पेट्रोलिंग, उप्र से सटी सीमा पर दोनों राज्यों के कार्मिकों की संयुक्त गश्त के दावों की कलई भी तब खुल जाती है, जब कोई न कोई घटना सामने आ जाती है। यही नहीं, पुलिस, खुफिया तंत्र के साथ ही दूसरे विभागों से समन्वय की बातें फाइलों तक ही सिमटी हुई हैं। इस सबका खामियाजा वन्यजीवों, खासकर बाघों को भुगतना पड़ रहा है। 

    अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि कार्बेट व उसके आसपास के क्षेत्र में पिछले वर्ष 15 बाघों की मौत हुई, लेकिन इसके कारणों की गहन पड़ताल नहीं हुई है। गत वर्ष वन्यजीव संरक्षण से जुड़े ट्रस्ट ऑपरेशन आइ आफ द टाइगर की ओर से विभिन्न स्थानों पर हुई खाल व अंगों की बरामदगी के आधार पर पार्क एवं उससे लगे क्षेत्रों में 2014 से 2016 तक 20 से ज्यादा बाघों के शिकार की आशंका जताई थी। इस पहलू को भी गंभीरता से नहीं लिया गया। प्रबंधन के मोर्चे पर ही देखें तो पार्क में लंबे समय से पूर्णकालिक निदेशक नहीं हैं। 

    मौजूदा निदेशक के पास पार्क के साथ ही एक अन्य सर्किल की जिम्मेदारी भी है। कार्बेट के अत्यधिक संवेदनशील होने के बाद भी इस पहलू पर गौर नहीं हो रहा। यही नहीं, कार्बेट के चारों तरफ 150 से अधिक होटल, रिजॉ‌र्ट्स की बाढ़ है, जिसे रोकने-टोकने को कोई गंभीर पहल हुई, ऐसा नजर नहीं आता। सूरतेहाल, कार्बेट की व्यवस्थाओं को लेकर सवाल तो उठेंगे ही। जो नेशनल पार्क उत्तराखंड को दुनियाभर में पहचान दिलाता है, आखिर उसके प्रति ऐसी अनदेखी क्यों, यह सवाल हर किसी को परेशान किए हुए है।

    आरबीएस रावत (सेवानिवृत्त, प्रमुख मुख्य वन संरक्षक, उत्तराखंड) का कहना है कि अदालत ने सभी पहलुओं को देखते हुए एनटीसीए को हस्तक्षेप करने को कहा है, जो एक बड़ा संदेश है कि कार्बेट में प्रबंधन में लापरवाही हुई है। अदालत के आदेश के आलोक में मुख्यमंत्री को तत्काल राज्य वन्यजीव बोर्ड की बैठक बुलानी चाहिए। इसके साथ ही शासन, वन विभाग और पार्क प्रशासन में बैठे लोगों को एनटीसीए, जीटीएम, डब्ल्यूआइआइ के विशेषज्ञों से मंथन कर प्रबंधन के लिए सकारात्मक कदम उठाने चाहिए।

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