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उत्तराखंड में विद्यार्थी सीखेंगे, कैसे बचाएं जंगल; जानिए क्या है पूरी योजना

केंद्र सरकार ने स्कूल नर्सरी कार्यक्रम शुरू करने का निर्णय लिया है। इसके अंतर्गत प्रथम चरण में उत्तराखंड में सौ स्कूलों को चयनित करने की कसरत हो रही है।

By Raksha PanthariEdited By: Published: Sat, 29 Aug 2020 07:02 PM (IST)Updated: Sat, 29 Aug 2020 07:02 PM (IST)
उत्तराखंड में विद्यार्थी सीखेंगे, कैसे बचाएं जंगल; जानिए क्या है पूरी योजना

देहरादून, केदार दत्त। पेड़-पौधे और जंगल हैं, तो पर्यावरण भी सुरक्षित है। यानी, जंगल हमारे अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न है। लॉकडाउन के दौरान हर किसी ने इस बात को बखूबी महसूस किया है। ऐसे में भावी पीढ़ी को बचपन से ही जंगलों के संरक्षण को प्रेरित और प्रोत्साहित किया जाए तो भविष्य में इसके बेहतर परिणाम सामने आएंगे। इसी को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने स्कूल नर्सरी कार्यक्रम शुरू करने का निर्णय लिया है। इसके अंतर्गत प्रथम चरण में उत्तराखंड में सौ स्कूलों को चयनित करने की कसरत हो रही है। इन स्कूलों में बच्चे जहां नर्सरियां पनपाएंगे, वहीं पौधों की देखभाल भी करेंगे। इसके साथ ही उन्हें पारिस्थितिकीय तंत्र को समझने के लिए प्रेरित किया जाएगा। वे यह भी जानेंगे कि पेड़ों व जंगलों की पर्यावरण संरक्षण में कितनी अहम भूमिका होती है। जंगल और पर्यावरण का व्यावहारिक ज्ञान देने वाली यह पहल उत्तराखंड के लिए ज्यादा फायदेमंद साबित होगी।

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हिमालय में वन्यजीव पर्यटन 

छह राष्ट्रीय उद्यान, सात अभयारण्य और चार कंजर्वेशन रिजर्व। सभी की वन और वन्यजीव विविधता बेजोड़। फिर भी वन्यजीव पर्यटन का करीब 85 प्रतिशत दारोमदार कॉर्बेट और राजाजी राष्ट्रीय उद्यानों पर ही टिका हुआ है। 17 संरक्षित क्षेत्रों वाले उत्तराखंड में वन्यजीव पर्यटन की यह तस्वीर कचोटती है। साफ है कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में स्थित संरक्षित क्षेत्रों की तरफ सैलानियों का रुख कम है। असल में उच्च हिमालयी क्षेत्र के संरक्षित क्षेत्रों में कॉर्बेट-राजाजी जैसी सुविधाएं नहीं हैं। यह भी सैलानियों की बेरुखी की वजह हो सकती है। हालांकि, ये बात भी सही है कि उच्च हिमालय में ज्यादा आवाजाही ठीक नहीं है। लिहाजा, हिमालयी क्षेत्र में ऐसे वन्यजीव पर्यटन पर फोकस करना होगा, जिसमें सैलानियों की संख्या सीमित हो और आय अधिक प्राप्त हो। इसी हिसाब से वहां सुविधाएं विकसित करने पर फोकस करना होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार इस दिशा में गंभीरता से पहल करेगी।

जंगलों में कचरा प्रबंधन जरूरी

दुनियाभर में पर्यावरण की बिगड़ती सेहत चिंता का विषय बनी हुई है। इसके मद्देनजर केंद्र सरकार भी देश में शहरों-गांवों से रोजाना निकलने वाले लाखों टन कचरे के प्रभावी प्रबंधन पर जोर दे रही है। उत्तराखंड में भी कचरे से जैविक खाद और बिजली तैयार करने की कसरत चल रही है। बावजूद इसके एक क्षेत्र ऐसा भी है, जो कचरा प्रबंधन की मुहिम से अछूता है और वह है जंगल। असल में, जंगलों अथवा उनके इर्द-गिर्द बड़े पैमाने पर कूड़ा, कचरा फेंका जा रहा है और यह सिलसिला अभी भी बना हुआ है। परिणामस्वरूप इससे जंगल और उसके आसपास के पर्यावरण को तो नुकसान पहुंच ही रहा, वन्यजीवों को भी इसके दुष्परिणाम झेलने पड़ रहे हैं। आसान भोजन की तलाश में वन्यजीव इसके इर्द-गिर्द आ रहे हैं। इससे मानव-वन्यजीव संघर्ष तेज होने का खतरा भी बढ़ रहा। ऐसे में जंगलों में कचरा प्रबंधन पर फोकस करना समय की जरूरत है।

आखिर कब सशक्त होंगी ईडीसी

यह ठीक है कि जंगलों का संरक्षण उत्तराखंड की परंपरा में है, लेकिन बदली परिस्थितियों में वन और जन के मजबूत रिश्तों में कुछ खटास भी आई है। वजह है, वन कानूनों की जटिलता। वन और जन के रिश्ते को सशक्त बनाने के मकसद से जंगलों के आसपास के गांवों में गठित की गईं ईको विकास समितियां (ईडीसी)। इसके पीछे अवधारणा यही है कि ईडीसी के माध्यम से गांवों में आजीविका विकास को कदम उठाए जाएं।

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साथ ही वन और वन्यजीव संरक्षण में जनमानस की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। निश्चित रूप से यह अवधारणा बेहतर है, लेकिन जरूरत इसे सक्रिय रूप से धरातल पर उतारने की है। स्थिति ये है कि जंगलों से लगे गांवों में ईडीसी जरूर गठित की गई हैं, लेकिन ये सिस्टम की बेपरवाही का दंश झेल रही हैं। ऐसे में इन्हें सशक्त बनाने के साथ ही उनके लिए अलग से बजट का प्रविधान किया जाना चाहिए।

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