Kedarnath Vasukital Track: केदारनाथ-वासुकीताल ट्रैक पर भटके यात्रियों को हौसले ने दिखाई वापसी की राह
Kedarnath Vasukital Track केदारनाथ-वासुकीताल ट्रैक पर भटके यात्रियों का हौसला ही था कि चार दिनों तक भूखे पेट जंगल में भटकने के बाद भी सकुशल वापस लौट आए।
रुद्रप्रयाग, बृजेश भट्ट। Kedarnath Vasukital Track केदारनाथ-वासुकीताल ट्रैक पर भटके यात्रियों का हौसला ही था कि चार दिनों तक भूखे पेट जंगल में भटकने के बाद भी सकुशल वापस लौट आए। इस अवधि में उन्होंने सिर्फ पानी पीकर ही घने जंगल के बीच सौ किमी से अधिक का फासला तय किया। वह भी तब, जब कई स्थानों पर बड़ी-बड़ी चट्टानें और आठ फीट से अधिक ऊंचे हिमखंड राह रोके हुए थे। फिर भी वो स्थानीय युवकों की मदद से गुरुवार रात तोषी गांव पहुंचने में सफल रहे।
देहरादून निवासी हिमांशु सिंह व जितेंद्र भंडारी और नैनीताल निवासी मोहित भट्ट व जगदीश बिष्ट 13 जुलाई की सुबह केदारनाथ से वासुकीताल ट्रैक पर रवाना हुए थे। उनके पास जैकेट व लाइटर के सिवा और कोई सामान नहीं था। टीम में शामिल जितेंद्र ने बताया कि दोपहर 12 बजे हम वासुकीताल पहुंच गए थे। वहां से हिमालय की खूबसूरती को निहारने के बाद जब हम वापस लौटने लगे तो इसी दौरान चारों ओर घना कोहरा छा गया। नतीजा, हम रास्ता भटककर वासुकीताल से लगभग छह किमी दूर एक हिमखंड के नजदीक जा पहुंचे। वहां आठ से दस फीट बर्फ जमी हुई थी। यहीं से हमारी परीक्षा शुरू हुई।
बताया कि करीब दो किमी लंबे बर्फ के हिमखंड को पार करने के बाद हम नीचे घाटी की ओर जाने लगे। अब लगने लगा था कि रास्ता भटक चुके हैं। अंधेरा भी घिर आया था, सो हमने एक चट्टान की ओट में रात गुजारने का फैसला किया। हिमांशु सिंह बताते हैं कि हमें 13 जुलाई को ही वापस लौटना था, इसलिए खाने की कोई सामग्री हमारे पास नहीं थी। हां, लाइटर जरूर हमारे पास था और यही हमारे काम भी आया। हमने आसपास से सूखी लकड़ियां एकत्र कीं और पूरी रात अलाव जलाकर बिताई।
बकौल हिमांशु, 'सुबह होते ही हमने लौटने की राह तलाशने की कोशिश की, लेकिन पूरे दिन जंगल में ही भटककर रह गए। इस तरह 14 जुलाई का पूरा दिन भी गुजर गया। सुबह से कुछ खाया नहीं था, इसलिए पेट में भी चूहे कूद रहे थे। प्राकृतिक जलस्रोत के पानी से ही हमने अपनी भूख शांत की। अंधेरा घिरने के साथ बारिश भी शुरू हो गई थी। सो, हम एक गुफा में चले गए और अलाव जलाकर बारी-बारी से सभी ने हल्की नींद ली।'
टीम के सदस्य मोहित बताते हैं कि 15 जुलाई की सुबह मौसम साफ था। हम पानी पीने के बाद घने जंगल व गहरी घाटी से निकलकर नदी की ओर जाने लगे। दोपहर बाद एक पहाड़ी से दूर बस्ती नजर आई तो हमने भी घाटी की राह पकड़ ली। लेकिन, फिर रास्ता भटक गए और कब शाम ढल गई पता ही नहीं चला। रात जैसे-तैसे एक बड़े पत्थर की ओट में अलाव जलाकर बिताई, ताकि कोई जानवर पास न फटके। सुबह हो चुकी थी, हमारा थककर बुरा हाल था। फिर भी हमने हिम्मत नहीं हारी और रास्ते तलाश में आगे बढ़ने लगे। दूर पहाड़ी पर एक बस्ती नजर आ रही थी, पर बस्ती की ओर जाने के लिए बीच में एक खतरनाक चट्टान से होकर नीचे उतरना था।
टीम के चौथे सदस्य जगदीश बताते हैं कि बस्ती देखकर सभी में जोश का संचार हो गया था। उम्मीद जग रही थी कि जैसे-तैसे वहां तक पहुंच ही जाएंगे। लेकिन, घाटी बहुत गहरी थी। गुरुवार रात आठ बजे के आसपास मोबाइल पर नेटवर्क आया तो मैंने अपने घर और त्रियुगीनारायण के एक युवक को फोन पर पूरा वाकया सुना दिया।
दूसरी ओर तोषी गांव के युवक भी हमें खोजते-खोजते वहां तक पहुंच चुके थे। उन्हें देखते ही ऐसा लगा, मानो नया जीवन मिल गया है। उनके साथ रात नौ बजे के आसपास हम तोषी में शांति प्रसाद जी के घर पहुंचे और वहीं रात्रि विश्राम किया। टीम में शामिल जितेंद्र बताते हैं कि वह चारों अच्छे ट्रैकर हैं। इसलिए चार दिनों तक खाना न मिलने पर भी हिम्मत नहीं टूटी। हमें विश्वास था कि जरूर सकुशल वापस लौटेंगे। वह आगे कहते हैं कि यह ट्रैक बेहद खूबसूरत है और रोमांचक है। इसे विकसित किया जाना चाहिए।
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