प्रवासियों के मातृभूमि लौटने का सुखद अनुभव, पर चिंता का सबब भी
दुश्वारियां झेलने के बाद प्रवासी अपनी मातृभूमि लौट रहे हैं। यह सुखद अनुभव है पर चिंता का सबब भी। चिंता की वजह प्रवासियों की आमद नहीं सरकारी व्यवस्था है।
देहरादून, देवेंद्र सती। इसमें कोई शक नहीं कि प्रवासी अपने घर लौट रहे हैं। सरकार के लिए उपलब्धि और प्रवासियों के लिए बड़ी सौगात। दुश्वारियां झेलने के बाद प्रवासी अपनी मातृभूमि लौट रहे हैं। यह सुखद अनुभव है, पर चिंता का सबब भी। चिंता की वजह प्रवासियों की आमद नहीं, सरकारी व्यवस्था है। इस चिंता को बढ़ा रही है सैंपलिंग की धीमी रफ्तार। देहरादून और एकाध अन्य जिले को छोड़ दें तो सैंपलिंग की ठीक से खानापूरी भी नहीं हो रही है। बारह दिनों में प्रवासियों की आमद एक लाख पार और सैंपलिंग सिर्फ चार हजार। सरकारी आंकड़े ही सच्चाई की चुगली कर रहे हैं। इशारा कर रहे हैं कि यही हाल रहा तो उत्तराखंड में कोरोना संक्रमण का खतरा बढऩा तय है। काश! जिला प्रशासन और स्वास्थ्य महकमा भी इन इशारों को समझ पाता। गलती से भी कम्युनिटी स्प्रेड हो गया तो स्थिति संभालते नहीं संभलेगी। अब भी वक्त है, बेफिक्री छोड़ो।
बढ़ रही बेचैनी
जिंदगी के मेले में उमड़ा रेला जी का जंजाल न बन जाए। प्रवासी घर जाने के लिए बेचैन हैं और सिस्टम 'रास्ता' बनाने में व्यस्त। यह अच्छा है, रास्ता बनाना सिस्टम का ही काम है, लेकिन रास्ता सुरक्षित तो होना चाहिए। बस, यही वह जगह है जहां सवाल चौराहे पर आ जाते हैं। सवाल यह है कि आखिर इन प्रवासियों को गांव भेजने से पहले क्वारंटाइन क्यों नहीं किया जा रहा है। विशेष कर रेड जोन से आने वाले लोगों को एहतियातन इस व्यवस्था से गुजारा जाना चाहिए। मजेदार बात यह है कि लोग खुद क्वारंटाइन होना चाहते हैं, लेकिन सिस्टम नियम बताता है कि संक्रमित व्यक्तियों के संपर्क में आने वालों को क्वारंटाइन करने का नियम है। भई, ऐसा क्यों, जब आपके पास तमाम क्वारंटाइन सेंटर खाली हैं तो प्रवासियों को ठहराने में क्या दिक्कत है। दहशत को दूर कर सुरक्षा का अहसास करना सिस्टम की ही जिम्मेदारी है।
अपनों का परोसा
क्वारंटाइन सेंटरों में प्रवासियों को अपनेपन का एहसास हो रहा है। भले ही नियमों का मखौल उड़ रहा है, लेकिन प्रवासी बड़े चाव से अपनों के हाथ की बनी रोटी का खूब स्वाद ले रहे हैं। अब इसे प्रधान जी की मजबूरी माने या फिर प्रवासी बंधुओं का भाग्य। खैर, जो भी है क्वारंटाइन सेंटर में उन्हें यह सुखद अनुभूति हो रही है। दरअसल, पर्वतीय जिलों में सरकारी स्कूलों में बने क्वारंटाइन सेंटरों की व्यवस्थाएं 'छोटे सरकार' यानि प्रधान जी के कांधों पर है। कोरोना को हराने की मुहिम के चलते प्रवासियों को घर जाने से पहले चौदह दिन यहां बिताने हैं। वैसे तो क्वारंटाइन अवधि में ये सभी सरकारी मेहमान हैं, इनका सारा खर्च सरकार को उठाना है। पर कहते हैं ना सरकारी सिस्टम नियमों पर कहां चलता है। कोरोनाकाल में भी इस रवायत से पीछा नहीं छूटा और अब यही प्रवासियों के लिए वरदान साबित हो रही है।
...और अंत में
भगवान को भले ही पत्थर में पूजा जाता हो, लेकिन चिकित्सक को तो इंसान के रुप में भगवान ही माना जाता है। जब यही भगवान पाषाण की तरह व्यवहार करने लगे तो क्या कहेंगे। पिछले दिनों टिहरी के जिला अस्पताल में कुछ ऐसा ही हुआ। वहां मौजूद चिकित्सक ने प्रसव पीड़ा से कराहाती महिला को इसलिए भर्ती नहीं किया क्यों कि दिल्ली से लौटा उसका पति होम क्वारंटाइन था। अस्पताल प्रबंधन का तर्क भी लाजवाब था, महिला को भर्ती करने से दूसरे मरीजों को खतरा हो सकता था। सवाल यह है कि एक तो सुदूर पहाड़ों में वैसे भी चिकित्सकों का अभाव है और जहां चिकित्सक मिले वो का नियम बताने लगेंगे तो मरीज कहां जाए। अस्पताल प्रबंधन को सोचना चाहिए कि इन मरीजों के लिए क्या व्यवस्था हो सकती है। इस दर्द की दवा भी तो उन्हीं के पास है। कोरोना से सावधान रहना है न कि खौफ में।