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हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र के लिए चाहिए परंपरागत विकास मॉडल

डॉल्फिन पीजी इंस्टीट्यूट ऑफ बायोमेडिकल एंड नेचुरल साइंसेज के परिसर में आयोजित कार्यशाला में चंडी प्रसाद भट्ट ने कहा कि विकास के परंपरागत मॉडल को लागू किया जाए।

By Sunil NegiEdited By: Published: Wed, 31 Oct 2018 12:52 PM (IST)Updated: Sat, 10 Nov 2018 08:14 AM (IST)
हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र के लिए चाहिए परंपरागत विकास मॉडल
हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र के लिए चाहिए परंपरागत विकास मॉडल

देहरादून, [जेएनएन]: डॉल्फिन पीजी इंस्टीट्यूट ऑफ बायोमेडिकल एंड नेचुरल साइंसेज के परिसर में संस्थान के वनस्पति विज्ञान विभाग व एकेडमी ऑफ प्लांट साइंसेज इंडिया के संयुक्त तत्वावधान में 28वीं एकेडमी ऑफ साइंसेज इंडिया साइंटिस्ट मीट-2018 एवं मल्टीडिसिप्लिनेरी एप्रोचेस ऑफ प्लांट साइंसेज विषय पर तीन दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया जा रहा है। जिसका शुभारंभ मुख्य अतिथि पद्मभूषण चंडी प्रसाद भट्ट ने किया। उन्होंने कार्यशाला का मैनुअल भी जारी किया। भïट्ट ने कहा कि वैज्ञानिक व स्थानीय लोग सरकारों पर दबाव बनाएं कि हिमालयी राज्यों में वन संपदा, ग्लेशियरों, हिमनदों, जीव-जंतु व वनस्पतियों के संरक्षण व संवर्धन के लिए विकास के परंपरागत मॉडल को लागू किया जाए। 

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उन्होंने कहा कि अंटार्कटिका, आर्कटिक महाद्वीप के बाद हिमालय को तीसरा ध्रुव माना गया है, जिसमें सर्वाधिक बर्फ है। देश के हिमालय राज्यों व पड़ोसी देशों में हिमनद, वनस्पति, जीव जंतु, मानव जाति, बोली-भाषा, रहन-सहन और परंपरागत जीवन शैली है। मानवजनित कारणों से अनेक आपदाएं आई हैं और स्वघोषित विकास के लिए वनों के कटाव, भूकटाव व अन्य हस्तक्षेप के कारण आपदाओं की भयावहता और पुनरावृत्ति को देखा गया है।

आइसीएफआरइ के पूर्व डीजी डॉ. अश्विनी कुमार शर्मा ने पर्यावरण में हो रहे परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने में वनों की महत्वपूर्ण भूमिका पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा कि केवल एक डिग्री सेंटीग्रेट तापमान बढ़ने का ही दुष्प्रभाव यह देखा गया कि जहां वर्षा अधिक होती थी वहां और अधिक वर्षा देखी गई और जहां सूखा था वहां और अधिक सूखा देखा गया। इससे पूर्व संस्थान की प्राचार्य डॉ. शैलजा पंत ने सभी अतिथियों का स्वागत किया। आयोजन सचिव वनस्पति विज्ञान के विभागाध्यक्ष डॉ. केपी त्रिपाठी ने कार्यशाला की रूपरेखा प्रस्तुत की।

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