पहाड़ी व्यंजनों और कृषि उत्पादों के जरिये ऐसे बदल डाली खुद की तकदीर
आज से डेढ़ साल पहले लक्ष्मण सिंह रावत ने देहरादून में 'गढ़ भोज' नाम से रेस्टोरेंट खोला, जहां परोसे जाते हैं पहाड़ी व्यंजन।
उत्तराखंड में पलायन भले ही एक बड़ी समस्या के रूप में उभरा हो, लेकिन तमाम लोग ऐसे भी हैं, जिन्होंने वापस लौट माटी से जुड़कर तरक्की की नई इबारत लिख डाली। इन्हीं में एक हैं लक्ष्मण सिंह रावत। अपनी संस्कृति और परंपराओं से गहराई से जुड़े लक्ष्मण को न तो मायानगरी मुंबई में होटलों की नौकरी रास आई और न अमेरिका जाने की इच्छा। रिवर्स पलायन का उदाहरण बने लक्ष्मण ने उत्तराखंड लौटकर यहां के पांरपरिक खान-पान और कृषि उत्पादों के जरिये खुद की तकदीर लिखने की ठानी।
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डेढ़ साल पहले उन्होंने देहरादून में 'गढ़ भोज' नाम से रेस्टोरेंट खोला, जहां परोसे जाते हैं पहाड़ी व्यंजन। यह लक्ष्मण की मेहनत का ही परिणाम है कि डेढ़ साल के समय में टर्न ओवर डेढ़ करोड़ जा पहुंचा है। यही नहीं, 14 लोगों को वह प्रत्यक्ष रोजगार दे रहे हैं, जबकि राज्य के पर्वतीय जिलों के तमाम काश्तकारों से वह कृषि उत्पाद खरीद कर उनसे भी अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं।
रुदप्रयाग जिले के बच्चवाण गांव (जखोली) निवासी लक्ष्मण सिंह रावत की दास्तां कम रोचक नहीं है। वह बताते हैं कि गांव में खेती-बाड़ी के अलावा रोजगार के दूसरे साधन न होने पर 1970 में उनके पिता दिल्ली चले गए और अजमेरी गेट में किराये पर ढाबा संचालित किया। सब कुछ ठीक चल रहा था कि 17 साल की उम्र में सिर से पिता का साया उठ गया। लक्ष्मण पर माता, तीन भाइयों की जिम्मेदारी आ गई।
लक्ष्मण ने बीए तक पढ़ाई की और फिर दिल्ली छोड़ काम की तलाश में मुंबई चले गए। वह बताते हैं कि मुंबई में होटलों में वेटर से लेकर मैनेजर तक की नौकरी की। इस बीच अमेरिका जाने की तैयारी भी कर ली। तभी कुछ दोस्तों ने सुझाव दिया कि उत्तराखंड में रहकर स्वरोजगार के जरिये नौकरी करने नहीं, बल्कि देने वाला बनो। दोस्तों की बात को गांठ बांध लिया और वापस उत्तराखंड लौटकर वहीं पहचान बनाने की ठान ली।
पांरपरिक व्यंजनों के जरिये खोजी राह
मुंबई में रहते हुए लक्ष्मण ने थोड़ी बहुत पूंजी जमा कर ली थी। अब चिंता यह थी कि स्वरोजगार के लिए कौन सा क्षेत्र अपनाया जाए। चूंकि, होटल व्यवसाय का उन्हें अनुभव था, सो गढ़वाल और कुमाऊं मंडलों के पांरपरिक व्यंजनों को इसके लिए चुना। करीब आठ माह तक पहाड़ी के उत्पादों को सूचीबद्ध कर उनसे तैयार होने वाले व्यंजनों की जानकारी लेकर डिसेज का मीनू तैयार किया।
इसके लिए वैज्ञानिकों और रिसर्च करने वालों की भी मदद ली गई। मीनू तैयार हुआ तो जनवरी 2017 में देहरादून के पॉश इलाके राजपुर रोड में गढ़भोज नाम से रेस्टोरेंट खोला। शुरुआत में कुछ दिक्कतें जरूर हुई, मगर अब यह रेस्टोरेंट खास और आम के बीच पहाड़ी व्यंजनों को लेकर अपनी पहचान बना चुका है।
पर्यटक भी ढूंढते हैं गढ़ भोज
प्रचार-प्रसार के हाईटेक तरीके अपनाए तो देहरादून आने वाले देशी-विदेशी सैलानी यहां पहुंचकर पहाड़ी व्यंजनों का लुत्फ उठाते हैं। यही नहीं, तमाम कार्यक्रमों में भी वह इन व्यंजनों को परोसते हैं। कई मर्तबा तो बड़े कार्यक्रमों में और डिमांड अधिक होने से व्यंजनों की आपूर्ति चुनौती भी बन जाती है।
प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रोजगार
लक्ष्मण बताते हैं कि उनके रेस्टोरेंट में 14 युवाओं को रोजगार मिल रहा है। ये सभी गढ़वाल और कुमाऊं के रहने वाले हैं। यही नहीं, उत्तरकाशी, टिहरी, चमोली, रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत जिलों के स्वयं सहायता समूह और कुछ एनजीओ भी उनसे जुड़े हैं, जिनसे वह पहाड़ी कृषि उत्पाद खरीदते हैं। जाहिर है कि इन स्वयं सहायता समूहों को भी आर्थिक रूप से न सिर्फ लाभ मिल रहा, बल्कि उनके सामने विपणन की दिक्कत दूर हुई है।
वैज्ञानिक नाम और न्यूट्रीशियन वैल्यू भी
लक्ष्मण सिंह ने अपने रेस्टोरेंट में परोसे जाने वाले पहाड़ी उत्पादों के वैज्ञानिक नाम और उनके फायदे भी मीनू में गिनाए गए हैं। इसमें व्यंजनों की न्यूट्रीशियन वैल्यू, लैब टेस्टिंग रिपोर्ट और शरीर को मिलने वाले फायदों के बारे में भी बताया जा रहा है।
दून समेत पर्यटक स्थलों में मिले तवज्जो
लक्ष्मण सिंह कहते हैं कि आज सबसे बड़ी जरूरत पहाड़ी व्यंजनों और उत्पादों को प्रमोट करने की है। इसके तहत पहाड़ी व्यंजनों को प्रोत्साहित करने को एक चेन तैयार की जाए और इसके तहत देहरादून समेत सभी पर्यटक स्थलों के साथ ही चारधाम यात्रा मार्गों पर होटल खोले जाएं। इसके लिए सरकार के साथ ही स्थानीय निवासियों को आगे आना होगा। इससे जहां रोजगार के अवसर सृजित होंगे, वहीं पहाड़ के व्यंजनों और उत्पादों को पहचान भी मिलेगी।
लक्ष्मण सिंह रावत
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