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देहरादूनः बेसहारों के लिए मां नहीं मां से बढ़कर, उठाया सुरक्षा का बीड़ा

सहकारिता विभाग में डिप्टी रजिस्टार के पद पर कार्यरत रमिंद्री कहती हैं-'अपने लिए तो सभी जीते हैं। जो दूसरों के लिए जिए, जीना उसी का नाम है।'

By Gaurav TiwariEdited By: Published: Wed, 15 Aug 2018 06:00 AM (IST)Updated: Thu, 16 Aug 2018 11:07 AM (IST)
देहरादूनः बेसहारों के लिए मां नहीं मां से बढ़कर, उठाया सुरक्षा का बीड़ा

'वह मां नहीं, मां से बढ़कर हैं। उनका नेह कितना निर्मल, कितना निश्छल है। उनके स्पर्शमात्र से ही सारी पीड़ा काफूर हो जाती है।' दून में ऐसे उन दर्जनों बच्चों की जुबां से यही शब्द फूटते हैं, जिनके सिर पर साया है रमिंद्री मंद्रवाल जैसी मां का। सिर्फ स्नेह ही नहीं, वह इन बच्चों के लिए हर वो फर्ज निभाती हैं, जो एक मां को निभाना चाहिए। यही नहीं, पिछले 33 वर्षों से वह बेसहारा महिलाओं और बड़ों के लिए पालनहार की भूमिका भी निभा रही हैं। कई परिवारों को वह बिखरने से बचा चुकी हैं। सहकारिता विभाग में डिप्टी रजिस्टार के पद पर कार्यरत रमिंद्री कहती हैं-'अपने लिए तो सभी जीते हैं। जो दूसरों के लिए जिए, जीना उसी का नाम है।'

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बचपन से ही समाज सेवा का जज्बा
मूल रूप से उत्तरकाशी निवासी रमिंद्री मंद्रवाल बचपन से ही गरीब, निर्धन, मेधावी और बेसहारों की मदद को आगे रहती थी। पिता से खादी की सादगी और समाज के प्रति समर्पण देखा तो इसके जीवन में आत्मसात कर लिया। पिता के राजनीति में सक्रिय होने के बावजूद सियासत से दूर रही। मन में सिर्फ समाज के बेसहारा के आंसू पोंछ कर उनकी खुशी लौटाने का सपना था। सो, रमिंद्री कक्षा सात से ही समाज सेवा में जुट गई।

एमडीएस स्कूल की सिस्टर रोजीमैरी के संपर्क में आई तो समाज के प्रति समर्पण बढ़ा। इसके बाद 1989 में शिक्षकों की अनुपस्थिति में अन्य छात्राओं को पढ़ाना और होमवर्क कराना उनका मकसद हो गया। छुट्टियों में मलिन बस्तियों में जाकर जरूरतमंद बच्चों को निशुल्क पढ़ाने का कार्य किया। इस दौरान मेधा के बावजूद आर्थिक और सामाजिक मजबूरी वाले छात्र-छात्राओं के संपर्क में आई। कॉलेज में आई तो सामाजिक काम अपनी जिम्मेदारी में शामिल कर दिया था।

1991 में पीजी कॉलेज उत्तरकाशी में पहली छात्रा उपाध्यक्ष बनीं। रमिंद्री ने कक्षा एक से लेकर एमएससी आर्गेनिक, एमए इतिहास, बीएड आदि कई डिग्री प्रथम श्रेणी में पास की। पढ़ाई के दौरान 1994 में राज्य आंदोलन शुरू हुआ तो जिला संयोजक के तौर पर राज्य आंदोलन का नेतृत्व किया। इस दौरान पूरा फोकस बेसहारा महिलाओं, बच्चों और बड़ों की मदद रखा। पिता सुन्दरलाल मंद्रवाल श्रीनगर और पौड़ी के विधायक बने तो समाज से हर वर्ग को करीब से देखा। इससे पहले लेक्चर बनकर डायट की नौकरी की। मगर, आगे बढऩे की ललक रही तो 2005 में पीसीएस की परीक्षा पास कर ली। 

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घर को ही बनाया अनाथ आश्रम
रमिंद्री बताती हैं कि जीवन जीने के लिए दूसरों के दुखों में साथ रहकर उनके आंसू पोंछना और चेहरों पर खुशी देखना ही उनका मकसद है। इसी के लिए 2007 में देहरादून में बद्रीपुर स्थित अपने घर को ही अनाथ आश्रम बनाया। यहां पढ़ने और रहने वाले बच्चे उन्हें मां और दादी के रूप में पुकारते हैं। इस आश्रम में अब तक 163 से ज्यादा बेसहारा बच्चों, महिलाओं और बड़ों को सहारा दिया गया। उनके आश्रम में आज भी 43 बच्चे रहते हैं। इन बच्चों के लिए रमिंद्री मां ही नहीं बल्कि मां से भी बढ़कर हैं।

अब तक 13 बच्चों की कराई शादी
रमिंद्री बताती हैं कि अपना घर आश्रम में रहने वाले 13 बच्चों का विवाह हो चुका है। यह सभी गरीब और बेसहारा थे। इनके घर बसने की खुशी को बयां नहीं किया जा सकता है। शादी हो चुकी लड़कियां जब यहां आती तो घर से जैसा माहौल दिखता है।

खुद को खुद की आंखों से देखें
रमिंद्री कहती हैं कि जीवन में तरक्की वही कर सकता है, जो दूसरों के कहने-सुनने की बजाए स्वयं को अपने अंदर की प्रतिभा को पहचाने। इसके लिए जरूरी है कि बाहरी परिवेश को नजरअंदाज कर स्वयं के काम का आंकलन करें। अपने निर्णय और अपने कार्य को देखें।

18 साल पहले वाला दून कहां
रमिंद्री मंद्रवाल कहती हैं कि राज्य की राजधानी बनने से पहले जो तस्वीर देहरादून की देखी जाती थी, वह अब नहीं है। अब महिलाएं और बच्चे यहां सुरक्षित नहीं है। स्वयं का विवेक, जमीर और जिम्मेदारी से हटकर दूसरे की लाइफ स्टाइल से ज्यादा सीख ली जा रही है, जो भविष्य के लिए बड़ी चिंता है। लिहाजा, इस पहलू पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है।

बाहर सशक्तिकरण और अंदर कमजोर
महिलाओं को लेकर सरकारी अभियान, कायदे-कानून से महिला सशक्तीकरण की बात कही जा रही है, लेकिन हकीकत कुछ और ही है। रमिंद्री के मुताबिक महिलाएं फिजिकली, आर्थिक, सामाजिक और नैतिक रूप से सशक्त होनी चाहिए। मगर, इसकी तुलना पुरुषों से या दूसरों से नहीं की जानी चाहिए। सशक्त वही महिला है जो स्वयं की बेहतरी के लिए संतुष्ट है।

एकाकी परिवार बच्चों की चुनौती
रिश्तों के प्रति पहले जैसी घनिष्ठता अब नहीं रही। यही कारण है कि संयुक्त परिवारों का अपनत्व खत्म होने से अधिकांश लोग एकाकी जीवन जी रहे हैं। रमिंद्री कहती हैं कि इसका असर समाज पर भी दिख रहा है। सुख-सुविधाएं जरूर बढ़ी हैं, मगर अपनी संस्कृति से अपनत्व का भाव कम हो रहा है। इसे देखते हुए बेहतर काउंसिलिंग की जरूरत है।

नैतिक ज्ञान व गुणात्मक शिक्षा पर हो फोकस
डिप्टी रजिस्ट्रार रमिंद्री का कहना है कि स्कूल अब सिर्फ ज्ञान देने तक सीमित है। जबकि स्कूलों से ही बच्चों का भविष्य तय होता है। उन्होंने कहा कि स्कूलों में पढ़ाई के साथ नैतिक ज्ञान और गुणात्मक शिक्षा पर फोकस होना चाहिए। बात समझने की है कि संस्कार और संस्कृति के बिना ज्ञान अधूरा है।

सुरक्षित समाज को सभी आएं आगे
सामाजिक सुरक्षा की जिम्मेदारी हर किसी के पास है। सरकारी सिस्टम के भरोसे रहने की बजाए समाज के प्रत्येक नागरिक को इसके लिए आगे आना होगा। जनप्रतिनिधियों को भी सामाजिक सुरक्षा को प्राथमिकता में रख जनता को जागरूक करना होगा।

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